रदीफ़- रही
काफ़िया -चलती , ढलती
अर्कान -२१२२,२१२२,२१२२,२१२
दायरों में ही सिमट कर जिंदगी ढलती रही
तुम फलक थे मैं जमीं औ कश्मकश चलती रही।
मायने थे रौशनी के रात भर उनके लिये
लौ दिये की थरथराती ताक में जलती रही।
दे रहा दाता मुझे खुशियाँ हमेशा बेशुमार
फिर कमी किस बात की जाने हमें खलती रही।
ज़िद ज़माने को दिखाने की रही थी बेवजह
जानि - पहिचानी मुसीबत कोख में पलती रही।
हौसला रखकर फ़तह का जंग हम…
ContinuePosted on September 3, 2014 at 1:30am — 9 Comments
कभी कभी
जब/ वाणी ,कलम और अनुभूतियाँ
यूँ छिटक जाते हैं
जैसे पहाड़ी बाँध से छूटी
उत्श्रिङ्खल लहरें
बहा ले जाती हैं /अचानक
खुशियाँ /सपने /और जिंदगियाँ …
जब /बदहवास रिश्ते
बहा नहीं पाते
अपनी आँखों और मन से
पीड़ा /स्मृतियाँ
और वो
जो ढह जाता है
ताश के महल की तरह
जब एक हूक उठती है
सीने में /और
भर देती है
अनंत आसमान का
सारा खालीपन
कभी सारा समन्दर
और उसका खारापन
जब जुगलबंदी…
ContinuePosted on June 18, 2014 at 1:00am — 12 Comments
रदीफ़ -के लिये
काफ़िया -शुभकामनाओं ,संभावनाओं , याचनाओं
अर्कान -2122 ,2122 ,2122 ,212
है बहाना आज फिर शुभकामनाओं के लिये
आँधियों की धूल में संभावनाओं के लिये .
नींद क्यों आती नहीं ये ख्वाब हैं पसरे हुये
हो गई बंजर जमीनें भावनाओं के लिये .
है बड़ा मुश्किल समझना जिंदगी की धार को
माँगते अधिकार हैं सब वर्जनाओं…
Posted on April 18, 2014 at 1:29am — 21 Comments
मैं गिड़गिड़ाता रहा हूँ
रात दिन
तुम सबके सामने
जितने भी सम्बन्ध हो
कल आज और कल के
इस उम्मीद के साथ /कि
तुम थोड़ा पिघलोगे
भले ही अनिच्छा से
मेरा मान रखोगे
यह भ्रम /जीवन भर
साथ चलता रहा है
इसीलिये सब सहा है
यह सुनते ही तुम
मेरे विरोध में
खड़े हो जाओगे
और शायद फिर
मुझे गिड़गिड़ाता पाओगे
मैं अपना वक्तव्य बदलता हूँ
और इसे सार्वभौम /करता हूँ
फिर तुम्हारी और अपनी
ओर से कहता हूँ
मैं
मुझे…
Posted on March 9, 2014 at 10:23pm — 14 Comments
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प्रशंसा और प्रोत्साहन की इस सुखद अनुभूति के लिये मैं आप सभी के प्रति अपनी कृतज्ञता ज्ञापित करता हूँ…"