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चलो यूँ ही समझा लें मन को …

मैं गिड़गिड़ाता रहा हूँ
रात दिन
तुम सबके सामने
जितने भी सम्बन्ध हो
कल आज और कल के
इस उम्मीद के साथ /कि
तुम थोड़ा पिघलोगे
भले ही अनिच्छा से
मेरा मान रखोगे
यह भ्रम /जीवन भर
साथ चलता रहा है
इसीलिये सब सहा है
यह सुनते ही तुम
मेरे विरोध में
खड़े हो जाओगे
और शायद फिर
मुझे गिड़गिड़ाता पाओगे
मैं अपना वक्तव्य बदलता हूँ
और इसे सार्वभौम /करता हूँ
फिर तुम्हारी और अपनी

ओर से कहता हूँ
मैं
मुझे लगता है अनुभव हूँ
एक उम्र का
संभवतः हो सकता हूँ
दिशा सूचक /भले या बुरे का
माना कि सब कुछ आपेक्षिक है
हर व्यक्ति के लिये
माना कि
मेरा सच /तुम्हारा नहीं
मेरा गंतव्य तुम्हारा मंतव्य नहीं
तुम उगते सूर्य हो /ज्ञान हो
प्रतिस्पर्धा हो /तर्क हो /अनूठे हो
इमोशंस /सेंटीमेंट्स /पेट्रिओटिज्म
इन निरर्थक शब्दों का ढोना
तुम्हें गवारा नहीं
इन सबका रोना
मर्यादा /विनय/सामाजिकता /शिष्टाचार
कहाँ है अब नये समाज का आधार ?
कोई नहीं होता ख़ास
सबके सब बिंदास …
संबंधों के बीच
गिड़गिड़ाना
परिस्थितियों का
हृदय शूल सा पिड़ाना
क्या जीवन की निरंतरता के
पड़ाव होते होंगे ?
जब सारा जग हँसता है
तब कुछ तो रोते होंगे …
चलो यूँ ही समझा लें मन को …

-ललित मोहन पन्त

"मौलिक व अप्रकाशित"

Views: 806

Comment

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Comment by dr lalit mohan pant on April 24, 2014 at 12:27am

dhanywaad geet ji aapke protsahan ke liye  ...

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on April 20, 2014 at 12:34am

अंतर में उठे अति गहन विश्लेषण को बहुत सहजता से समझाती हुई रचना, बहुत बहुत बधाई आपको आदरणीय ललित जी

Comment by dr lalit mohan pant on April 11, 2014 at 11:42pm

Omprakash Kshatriy,कल्पना रामानी ,Meena Pathak ji aap sabke protsahan ke liye hriday se aabhaar ....

Comment by Meena Pathak on April 10, 2014 at 4:51pm

चलो यूँ ही समझा लें मन को …

बहुत सुन्दर रचना ... बधाई 

Comment by कल्पना रामानी on April 4, 2014 at 10:54pm

मन में उठते हुए भावों की गहन और सार्थक अभिव्यक्ति के लिए आपको हार्दिक बधाई

Comment by Omprakash Kshatriya on April 2, 2014 at 3:07pm

सरल सहज भाषा में सुन्दर कथ्य 

Comment by dr lalit mohan pant on March 28, 2014 at 9:51pm

Dr.Prachi Singh ji mujhe achchha laga ki meri baat aap tak pahunch paai  ...aabhar aur dhanywaad .


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on March 24, 2014 at 10:46am
संबंधों के अपनेपन पराएपन के बीच स्वयं को विवश पाती ... अपने आप को समझती समझाती मनोभावों की सुन्दर अभिव्यक्ति हुई है आ० डॉ० ललित मोहन पन्त जी..आपको हार्दिक बधाई
Comment by dr lalit mohan pant on March 13, 2014 at 1:10am

rajesh kumari जी धन्यवाद आपकी सराहना के लिये  … 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on March 12, 2014 at 11:50am

मर्यादा /विनय/सामाजिकता /शिष्टाचार 
कहाँ है अब नये समाज का आधार ? 
कोई नहीं होता ख़ास 
सबके सब बिंदास … 
संबंधों के बीच 
गिड़गिड़ाना 
परिस्थितियों का 
हृदय शूल सा पिड़ाना 
क्या जीवन की निरंतरता के 
पड़ाव होते होंगे ?
जब सारा जग हँसता है 
तब कुछ तो रोते होंगे … 
चलो यूँ ही समझा लें मन को …मन के भीतर उठते अंतर्द्वंद से निकले भावों की सुन्दर अभिव्यक्ति ,बधाई आपको डॉ० ललित पन्त जी  

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