ग़ज़ल
२१२२ ,२१२२ ,२१२२ ,२
बेबसी की इंतिहा जब आह सुनती है
आँसुओं से बैठ कर फिर वक़्त बुनती है.
मरहले दर मरहले बढ़ती रही वो धुँध
जिंदगी क्यों, ये न जाने राह चुनती है.
जीभ से जो पेट तक है आग का दरिया
फलसफों को भूख जिसमें रोज़ धुनती है.
वो थका है कब हमारा इम्तिहाँ ले कर
रेत है जो भाड़ की हर वक़्त भुनती है .
तू भले ही हो न हो पर राहत ए जाँ अब
दर्द की तस्बीह तेरा नाम गुनती है .
-ललित मोहन पंत
3. 03 सुबह
27 . 11 . 2013
"मौलिक व अप्रकाशित"
Comment
Saurabh Pandey जी आपकी दाद का शुक्रिया … धुनना मैंने दरिया के सन्दर्भ में कहा है आग में भुनती है और दरिया में धुनती है …
बहुत बढिया.. दाद कुबूल करें, ललित मोहनजी.
वैसे इस पोस्ट पर आप भी पलट कर शायद नहीं आये हैं. सो पाठकीय संवाद की कोई गुंजाइश बनी दीख नहीं रही मुझे. वर्ना पूछता कि आग में कोई चीज़ भुनती है या धुनती है. धुनने का अपना खास मायना है. वैसे काफ़िये की भी समस्या भारी ही है, सो, शाब्दिक चमत्कार के लिहाज़ से बढिया प्रयोग है. .. :-))
शुभ-शुभ
वाह बहुत खूब
आदरणीय ललित सर बेहतरीन ग़ज़ल कही है आपने सभी शेर बेहद सुन्दर बन पड़े हैं अंतिम शेर में तकाबुले रदीफ़ का दोष जान पड़ता है कृपया एक बार जाँच लें. खास कर इस शेर हेतु विशेष तौर से दाद कुबूल फरमाएं.
जीभ से जो पेट तक है आग का दरिया
फलसफों को भूख जिसमें रोज़ धुनती है. वाह वाह वाह
आदरणीय , लाजवाब गजल कही है , आपको हार्दिक बधाई !!!!!
जय हो आदरणीय, बहुत ही अच्छी लगी आपकी प्रस्तुति, सादर
तू भले ही और कितने इम्तहाँ ले ले
रेत है जो भाड़ की हर वक़्त भुनती है ...........क्या बात है, गजब का शेर
दमदार गजल हुयी , दिली दाद कुबुलिये आदरणीय ललित जी
सुंदर गजल बहुत बधाई । आपको ।
wah bahut khoob...haardik badhaaee
बहुत ही सुन्दर! हार्दिक बधाई आपको! |
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