रदीफ़- रही
काफ़िया -चलती , ढलती
अर्कान -२१२२,२१२२,२१२२,२१२
दायरों में ही सिमट कर जिंदगी ढलती रही
तुम फलक थे मैं जमीं औ कश्मकश चलती रही।
मायने थे रौशनी के रात भर उनके लिये
लौ दिये की थरथराती ताक में जलती रही।
दे रहा दाता मुझे खुशियाँ हमेशा बेशुमार
फिर कमी किस बात की जाने हमें खलती रही।
ज़िद ज़माने को दिखाने की रही थी बेवजह
जानि - पहिचानी मुसीबत कोख में पलती रही।
हौसला रखकर फ़तह का जंग हम लड़ते रहे
जिंदगी भी हर कदम पर मौत सी टलती रही।
आज भी तेरे न आने का मुझे अफ़सोस है
रात भर जलती शमाँ जब बर्फ सी गलती रही।
.
-ललित मोहन पन्त
1. 38 रात
3 . 9 . 2014
"मौलिक व अप्रकाशित"
Comment
MAHIMASHREE ji shukriya
दायरों में ही सिमट कर जिंदगी ढलती रही
तुम फलक थे मैं जमीं औ कश्मकश चलती रही।...लाजवाब मतला ..दाद कुबूल करें आ .ललित जी
aap sabhi vidwatjan ki protsahit karti pratikriyaon ka main hriday se aabhaari hun ... iinayat .. shukriya ...
बहुत बढ़िया, आदरणीय आपको ढेरों बधाइयाँ |
waaah waaah waaah क्या बात .. बहुत खूब
आज भी तेरे न आने का मुझे अफ़सोस है
रात भर जलती शमाँ जब बर्फ सी गलती रही।..आदरणीय ललित जी इस सुंदर ग़ज़ल के लिए तहे दिल बधाई सादर
बहुत सुन्दर ग़ज़ल हुयी है सभी अशआर शानदार बधाई.
दायरों में ही सिमट कर जिंदगी ढलती रही
तुम फलक थे मैं जमीं औ कश्मकश चलती रही।
दे रहा दाता मुझे खुशियाँ हमेशा बेशुमार
फिर कमी किस बात की जाने हमें खलती रही।
ज़िद ज़माने को दिखाने की रही थी बेवजह
जानि - पहिचानी मुसीबत कोख में पलती रही।
वाह बहुत बढ़िया अशआर आदरणीय
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