बह्र : १२२ १२२ १२२ १२
सभी पैरहन हम भुला कर चले
तेरे इश्क़ में जब नहा कर चले
न फिर उम्र भर वो अघा कर चले
जो मज़लूम का हक पचा कर चले
गये खर्चने हम मुहब्बत जहाँ
वहीं से मुहब्बत कमा कर चले
अकेले कभी अब से होंगे न हम
वो हमको हमीं से मिला कर चले
न जाने क्या हाथी का घट जाएगा
अगर चींटियों को बचा कर चले
तरस जाएगा एक बोसे को भी
वो पत्थर जिसे तुम ख़ुदा कर…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on February 23, 2016 at 5:57pm — 10 Comments
पहुँच रहे मंजिल तक
झटपट
काले काले घोड़े
भगवा घोड़े खुरच रहे हैं
दीवारें मस्जिद की
हरे रंग के घोड़े खुरचें
दीवारें मंदिर की
जो सफ़ेद हैं
उन्हें सियासत
मार रही है कोड़े
गधे और खच्चर की हालत
मुझसे मत पूछो तुम
लटक रहा है बैल कुँएँ में
क्यों? खुद ही सोचो तुम
गाय बिचारी
दूध बेचकर
खाने भर को जोड़े
है दिन रात सुनाई देती
इनकी टाप सभी…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on February 14, 2016 at 11:03am — 4 Comments
काम सारे
ख़त्म करके
रुक गई बहती नदी
ओढ़ कर
कुहरे की चादर
देर तक सोती रही
सूर्य बाबा
उठ सवेरे
हाथ मुँह धो आ गये
जो दिखा उनको
उसी से
चाय माँगे जा रहे
धूप कमरे में घुसी
तो हड़बड़ाकर
उठ गई
गर्म होते
सूर्य बाबा ने
कहा कुछ धूप से
धूप तो
सब जानती थी
गुदगुदा आई उसे
उठ गई
झटपट नहाकर
वो रसोई में…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on February 2, 2016 at 3:44pm — 12 Comments
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