वो पलकों की चिलमन …
वो पलकों की चिलमन उठा के गिराना
वो आँचल के कोने को मुंह में दबाना
ज़हन में है ज़िंदा वो मंज़र मिलन का
भला कैसे भूलूं मैं उसका मनाना
मुहब्बत की रूदाद क्यूँ अश्कों में भीगी
क्यूँ होता है मुहब्बत का दुश्मन ज़माना
गुजरती है करवट में तमाम शब हमारी
सलवटों में सिसकता है दिल का फ़साना
रंज होता है क्या ये न जाने थे अब…
ContinueAdded by Sushil Sarna on February 4, 2014 at 7:30pm — 15 Comments
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