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Nilesh Shevgaonkar's Blog – March 2017 Archive (5)

ग़ज़ल-नूर की - जैसी उस ने सौंपी थी वैसी मिले,

२१२२/२१२२/२१२ 

.

जैसी उस ने सौंपी थी वैसी मिले,

ये न हो चादर उसे मैली मिले.

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इस सफ़र में रात जब गहरी मिले

शम’अ कोई या ख़ुदा जलती मिले.

.

याद रखने के लिये दुनिया रही

भूल जाने के लिये हम ही मिले. 

.

ये बग़ावत है तो हम बाग़ी सही,

सच कहेंगे, फिर सज़ा इस की मिले.


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हाँ! शुरू में रोज़ मिलते थे.. मगर

बाद में कुछ यूँ हुआ कम ही मिले.

.

सर…

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Added by Nilesh Shevgaonkar on March 31, 2017 at 8:35am — 16 Comments

ग़ज़ल नूर की-- तेरी दुनिया में हम बेकार आये.

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समझ पाये जो ख़ुद के पार आये,

तेरी दुनिया में हम बेकार आये.

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बहन माँ बाप बीवी दोस्त बच्चे,

कहानी थी.... कई क़िरदार आये. 

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क़दम रखते ही दीवारें उठी थीं,  

सफ़र में मरहले दुश्वार आये.

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शिकस्ता दिल बिख़र जायेगा मेरा,

वहाँ से अब अगर इनकार आये.

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उडाये थे कई क़ासिद कबूतर,   

मगर वापस फ़क़त दो चार आये.

.

समुन्दर की अनाएँ गर्क़ कर दूँ,

मेरे हाथों में गर पतवार आये.

.

अगरचे…

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Added by Nilesh Shevgaonkar on March 26, 2017 at 6:00pm — 28 Comments

"नूर" ....कब चुना हमने मुसलमान या हिन्दू होना

२१२२/११२२/११२२/२२

कब चुना हमने मुसलमान या हिन्दू होना

न तो माँ बाप चुनें और न घर ही को चुना

हम ने ये भी न चुना था कि बशर हो जायें.



हम को इंसान बना कर था यहाँ भेजा गया,

कैसे मज़हब के कई ख़ानों में तक्सीम हुए?

क्यूँ सिखाये गए हम को ये सबक नफरत के?

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हम ने दहशत से परे जा के बुना इक सपना

अपनी दुनिया न सही, काश हो आँगन अपना

ऐसा आँगन कि जहाँ साथ पलें राम-ओ-रहीम.

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जुर्म ये था कि जलाया था अँधेरों में चराग़

हम ने नफ़रत की हवाओं के…

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Added by Nilesh Shevgaonkar on March 14, 2017 at 9:30pm — 8 Comments

ग़ज़ल-नूर की -क्या है ज़िन्दगी,

२१२२,२१२२, २१२२, २१२ 

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सोचने लगता हूँ अक्सर मैं कि क्या है ज़िन्दगी,

आग पानी आसमां धरती हवा है ज़िन्दगी.

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मौत जो मंज़िल है उसका रास्ता है ज़िन्दगी,

या कि अपने ही गुनाहों की सज़ा है ज़िन्दगी.

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बिन तुम्हारे इक मुसलसल हादसा है ज़िन्दगी,

सच कहूँ! ज़िन्दा हूँ लेकिन बेमज़ा है ज़िन्दगी.

.

ज़िन्दगी की हर अलामत यूँ तो आती है नज़र,

शोर है शहरों में फिर भी लापता है ज़िन्दगी.

.…

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Added by Nilesh Shevgaonkar on March 4, 2017 at 2:37pm — 10 Comments

ग़ज़ल नूर की : इश्क़ हुआ है क्या?

22. 22. 22. 22. 22. 22. 2



तन्हा शाम बिताते हो
तुम, इश्क़ हुआ है क्या?

मंज़र में खो जाते हो तुम, इश्क़ हुआ है क्या?

.

बारिश से पहले बादल पर अपनी आँखों से,

कोई अक्स बनाते हो तुम, इश्क़ हुआ है क्या?



ज़िक्र किसी का आये तो फूलों से खिलते हो,

शर्माते सकुचाते हो तुम, इश्क़ हुआ है क्या?

.

होटों पर मुस्कान बिना कारण आ जाती है,

बेकारण झुँझलाते हो तुम, इश्क़ हुआ है क्या?-…

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Added by Nilesh Shevgaonkar on March 1, 2017 at 7:00pm — 12 Comments

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