बह्र : २१२ २१२ २१२ २१२
ज़ुल्फ़ का घन घुमड़ता रहा रात भर
बिजलियों से मैं लड़ता रहा रात भर
घाव ठंडी हवाओं से दिनभर मिले
जिस्म तेरा चुपड़ता रहा रात भर
जिस्म पर तेरे हीरे चमकते रहे
मैं भी जुगनू पकड़ता रहा रात भर
पी लबों से, गिरा तेरे आगोश में
मुझ पे संयम बिगड़ता रहा रात भर
जिस भी दिन तुझसे अनबन हुई जान-ए-जाँ
आ के ख़ुद से झगड़ता रहा रात भर
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(मौलिक एवं अप्रकाशित)
Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on March 23, 2015 at 11:54am — 22 Comments
बह्र : २१२२ २१२२ २१२२ २१२
रूह को सब चाहते हैं जिस्म दफ़नाने के बाद
दास्तान-ए-इश्क़ बिकती खूब दीवाने के बाद
शर्बत-ए-आतिश पिला दे कोई जल जाने के बाद
यूँ कयामत ढा रहे वो गर्मियाँ आने के बाद
कुछ दिनों से है बड़ा नाराज़ मेरा हमसफ़र
अब कोई गुलशन यकीनन होगा वीराने के बाद
जब वो जूड़ा खोलते हैं वक्त जाता है ठहर
फिर से चलता जुल्फ़ के साये में सुस्ताने के बाद
एक वो थी एक मैं था एक दुनिया जादुई
और क्या कहने को रहता है…
Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on March 18, 2015 at 2:30pm — 32 Comments
बह्र : १२२२ १२२२ १२२२
पड़े चंदन के तरु पर घोसला रखना
तो जड़ के पास भूरा नेवला रखना
न जिससे प्रेम हो तुमको, सदा उससे
जरा सा ही सही पर फासला रखना
बचा लाया वतन को रंगभेदों से
ख़ुदा अपना हमेशा साँवला रखना
नचाना विश्व हो गर ताल पर इनकी
विचारों को हमेशा खोखला रखना
अगर पर्वत पे चढ़ना चाहते हो तुम
सदा पर्वत से ऊँचा हौसला रखना
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(मौलिक एवं अप्रकाशित)
Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on March 16, 2015 at 5:25pm — 20 Comments
बह्र : २२ २२ २२ २२ २२ २२ २२
वक़्त कसाई के हाथों मैं इतनी बार कटा हूँ
जाने कितने टुकड़ों में किस किस के साथ गया हूँ
हल्के आघातों से भी मैं टूट बिखर जाता हूँ
इतनी बार हुआ हुँ ठंडा इतनी बार तपा हूँ
जाने क्या आकर्षण, क्या जादू होता है इनमें
झूठे वादों की कीमत पर मैं हर बार बिका हूँ
अब दोनों में कोई अन्तर समझ नहीं आता है
सुख में दुख में आँसू बनकर इतनी बार बहा हूँ
मुझमें ही शैतान कहीं है और…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on March 12, 2015 at 4:40pm — 24 Comments
Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on March 11, 2015 at 4:04pm — 24 Comments
बह्र : २१२२ १२१२ २२
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फ़स्ल कम है किसान ज़्यादा हैं
ये ज़मीनें मसान ज़्यादा हैं
टूट जाएँगे मठ पुराने सब
देश में नौजवान ज़्यादा हैं
हर महल की यही कहानी है
द्वार कम नाबदान ज़्यादा हैं
आ गई राजनीति जंगल में
जानवर कम, मचान ज़्यादा हैं
हाल क्या है वतन का मत पूछो
गाँव कम हैं प्रधान ज़्यादा हैं
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(मौलिक एवम् अप्रकाशित)
Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on March 2, 2015 at 1:00pm — 41 Comments
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