हरे वृक्षों के बीच खडा एक ठूँठ।
खुद पर शर्मिन्दा, पछताता हुआ
अपनी दुर्दशा पर अश्रु बहाता हुआ।
पूछता था उस अनन्त सत्य से
द्रवित, व्यथित और भग्न हृदय से।
अपराध क्या था दुष्कर्म किया था क्या
मेरे भाग में यही दुर्दिन लिखा था क्या?
जो आज अपनों के बीच मैं अपना भी नही
उनके लिए हरापन सच, मेरे लिए सपना भी नही।
हरे कोमल पात उन्हें ढाँप रहे छतरी बनकर
कोई त्रास नहीं ,जो सूरज आज गया फिर आग उगलकर।
अपनी बाँह फैलाए वे जी रहे…
ContinueAdded by Tanuja Upreti on May 30, 2016 at 4:37pm — 5 Comments
सज़दे में सर झुकता है मेरा
राह चलते जहाँभी दरगाह मिली
तुम्हारे मन भी तो इज़्ज़त है
मेरे शंकर और मेरे राम की
जब उर्स होता है तो मैं भी
आती हूँ चादर चढ़ाने को
दशहरे में तुम भी जाते हो
रावण जलाने को
हमें कहाँ हर वक्त याद रहता है
मज़हब अपना
हाँ सियासत नहीं भूलती
मैं हिन्दू तू मुसलमान है
अब ये अलग बात है कि
मैं अगर इज़्ज़त हूँ
अपने भारत की
तो तू भी
हिन्द का सम्मान है ।
तनूजा उप्रेती
मौलिक व अप्रकाशित
Added by Tanuja Upreti on May 23, 2016 at 1:10pm — 2 Comments
Added by Tanuja Upreti on May 11, 2016 at 11:30am — 6 Comments
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