ईश्वर तुम हो कि नहीं हो
इस विवाद में मन उलझाये बैठी हूँ
‘हाँ’ ‘ना’ के दो पाटों के बीच पिसी
कुछ प्रश्न उठाए बैठी हूँ
कि अगर तुम हो तो इतने
अगम, अगोचर और अकथ्य क्यों हो
विचारों के पार मस्तिष्क से परे
‘पुहुप बास तै पातरे’ क्यों हो
तुम्हें खोजने की विकलता ने
जब प्राप्य ज्ञान खँगाला
तो द्वैत, अद्वैत और द्वैताद्वैत ने
मुझको पूरा उलझा डाला
तुम सुनते हो यदि
या कि मुझे तुम सुन पाओ
एक प्रार्थना है तुमसे
तुम खुद को थोड़ा सरल बनाओ
क्यों नहीं सीधे सीधे
तुम्हारा बोध हो जाये
जो भी टूट कर चाहे
वह तुमको पा जाये
तुम सहज प्राप्त हो जाते तो
जाने कितनी ‘निर्भया’ बच जातीं
धर्म का नाम लेकर उठती
अधर्म की आँधिय़ाँ थम जातीं
क्षुधित बालकों के हाथों में
रोटी बन कर आ जाओ
प्यासी हलकान धरती पर
मेघ बन बरस जाओ
मरते हुए किसानों के खेतों में
नन्हीं बौरें बनकर खिल जाओ
रहस्य से पगी हुई परतें
अब खुद उघेढ़ बाहर आओ
अनंत ब्रह्मांड में तुम्हें क्यूँ कर खोजें
क्यों न हर आत्मा में सजीव हो जाओ
तनूजा उप्रेती
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
धन्यवाद मदन मोहन जी
क्षुधित बालकों के हाथों में
रोटी बन कर आ जाओ
प्यासी हलकान धरती पर
मेघ बन बरस जाओ
मरते हुए किसानों के खेतों में
नन्हीं बौरें बनकर खिल जाओ
रहस्य से पगी हुई परतें
अब खुद उघेढ़ बाहर आओ
अनंत ब्रह्मांड में तुम्हें क्यूँ कर खोजें
क्यों न हर आत्मा में सजीव हो जाओ
भावपूर्ण चिंतन वाली कविता
हार्दिक एवम् सादर बधाई
तुम सहज प्राप्त हो जाते तो
जाने कितनी ‘निर्भया’ बच जातीं
धर्म का नाम लेकर उठती
अधर्म की आँधिय़ाँ थम जातीं.....बहुत बढ़िया , आध्यात्मिक चिंतन और उसकी कशमकश ! सुन्दर रचना आदरणीया तनूजा उप्रेती जी ! बधाई
धन्यवाद अमन जी
जीवन के पक्ष है , जिनको कोई दुख नही उनके लिए ईश्वर है और जो मुसीबत मे है उनके लिए नही है , अगर स्थिति उलट जाए तो मन के विचार भी बदल जाएंगे , आपकी कशमकश सत्य है ! आभार
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