कितने ही गिद्धमानव
आकाश में मुक्त होकर
उड़ रहे हैं
क्योंकि उनके मुँह पर
खून के निशान नहीं पाये गए
और तीन सौ रुपये चुराने वाला
अपनी सज़ा के इंतज़ार में
वर्षों जेल में सड़ता रहा
मैंने एक अवयस्क बलात्कारी को
हत्या करने के बाद इत्मीनान से
सुधारगृह जाते हुए देखा है
मैं क़ानून की क़ैदी हूँ ।
स्टोव हों या कि
बदले जमाने के गैस चूल्हे
बस बहू का आँचल थामते हैं
'न' सुनकर जगे पुरुषत्व के
नाखूनों से रिसते तेज़ाब से
झुलसता आ रहा है
स्त्री का चेहरा
अंतरिक्ष को बींधती ,समुद्र को चीरती
महिला के कपड़ों की लंबाई पर
समाज की ठेकेदारों की बहस
सुनती हूँ और बस खीजती हूँ
मैं वर्जनाओं की क़ैदी हूँ ।
सामने से गुजरती हुई
कार की खिड़की से निकल
लहराकर आसमान की तरफ
उड़ते हुए चॉकलेट के रैपर्स
सड़क के किनारे खुली नालियों से
उचककर मुँह चिड़ाते हुए
चिप्स के खाली पैकेट
देखकर कुढ़ती हूँ मैं
कैमिकल्स में डूबी सब्जियाँ
रंगों में नहायी दालें
जानते बूझते भी खरीदती हूँ
मैं व्यवस्था की क़ैदी हूँ।
(तनूजा उप्रेती)
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
रचना को पसंद करने और सराहने के लिए हार्दिक धन्यवाद आदरणीय विजय जी,आदरणीय अशोक जी एवं श्री सुनील जी ,बहुत बहुत आभार।
आदरणीया तनुजा उप्रेती जी सादर, उत्तम अभिव्यक्तियाँ हैं आपकी, सच है समाज और सरकार की बेशर्मी ने अव्यवस्था को ही व्यवस्था बना दिया है. सादर.
हार्दिक आभार आदरणीय समर कबीर जी
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