समय के पाँव भारी हैं इन दिनों !
संसद चाहती है -
कि अजन्मी उम्मीदों पर लगा दी जाय बंटवारे की कानूनी मुहर !
स्त्री-पुरुष अनुपात, मनुस्मृति और संविधान का विश्लेषण करते -
जीभ और जूते सा हो गया है समर्थन और विरोध के बीच का अंतर !
बढती जनसँख्या जहाँ वोट है , पेट नहीं !
पेट ,वोट ,लिंग, जाति का अंतिम हल आरक्षण ही निकलेगा अंततः !
हासिए पर पड़ा लोकतंत्र अपनी ऊब के लिए क्रांति खोजता है
अस्वीकार करता है -
कि मदारी की जादुई…
ContinueAdded by Arun Sri on June 4, 2014 at 10:30am — 10 Comments
आखिर कैसा देश है ये ?
- कि राजधानी का कवि संसद की ओर पीठ किए बैठा है ,
सोती हुई अदालतों की आँख में कोंच देना चाहता है अपनी कलम !
गैरकानूनी घोषित होने से ठीक पहले असामाजिक हुआ कवि -
कविताओं को खंखार सा मुँह में छुपाए उतर जाता है राजमार्ग की सीढियाँ ,
कि सरकारी सड़कों पर थूकना मना है ,कच्चे रास्तों पर तख्तियां नहीं होतीं !
पर साहित्यिक थूक से कच्ची, अनपढ़ गलियों को कोई फर्क नहीं पड़ता !
एक कवि के लिए गैरकानूनी होने से अधिक पीड़ादायक है गैरजरुरी होना…
ContinueAdded by Arun Sri on June 1, 2014 at 1:00pm — 23 Comments
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