समय के पाँव भारी हैं इन दिनों !
संसद चाहती है -
कि अजन्मी उम्मीदों पर लगा दी जाय बंटवारे की कानूनी मुहर !
स्त्री-पुरुष अनुपात, मनुस्मृति और संविधान का विश्लेषण करते -
जीभ और जूते सा हो गया है समर्थन और विरोध के बीच का अंतर !
बढती जनसँख्या जहाँ वोट है , पेट नहीं !
पेट ,वोट ,लिंग, जाति का अंतिम हल आरक्षण ही निकलेगा अंततः !
हासिए पर पड़ा लोकतंत्र अपनी ऊब के लिए क्रांति खोजता है
अस्वीकार करता है -
कि मदारी की जादुई भाषा से अलग भी हो सकता है तमाशे का अंत !
लेकिन शाम ढले तक भी उसकी आँखों में कोई सूर्य नहीं उत्सव का !
ताली बजाने को खुली मुट्ठी का खालीपन बदतर है -
क्षितिज के सूनेपन से भी !
शांतिवाद हो जाने को विवश हुई क्रांति -
उसकी कर्म-इन्द्रियों पर उग आए कोढ़ से अधिक कुछ भी नहीं !
पहाड़ी पर का दार्शनिक पूर्वजों के अभिलेखों से धूल झाड़ता है रोज !
जानता है कि घाटी में दफन हो जाती हैं सभ्यताएँ और उसके देवता !
भविष्य के हर प्रश्न पर अपनी कोट में खोंस लेता है सफ़ेद गुलाब !
उपसंहारीय कथन में -
कौवों के चिल्लाने का सम्बन्ध स्थापित करता है उनकी भूख से !
अपने छप्पर से एक लकड़ी निकाल चूल्हे में जला देता है !
कवि प्रेयसी की कब्र पर अपना नाम लिखना नहीं छोडता !
राजा और जीवन के विकल्प की बात पर -
“हमें का हानी” की मुद्रा में इशारे करता है नई खुदी कब्र की ओर !
उसके शब्द शिव के शोक से होड़ लगाते रचते है नया देहशास्त्र !
मृत्यु में अधिक है उसकी आस्था आत्मा और पुनर्जन्म के सापेक्ष !
समय के पाँव भारी हैं इन दिनों !
संसद में होती है लिंग और जाति पर असंसदीय चर्चा !
लोकतंत्र थाली पीटता है समय और निराशा से ठीक पहले !
दार्शनिक भात पकाता है कौवों के लिए कि कोई नहीं आने वाला !
सड़कों से विरक्त कवि -
आकाश देखता शोक मनाता है कि अमर तो प्रेम भी न हुआ !
.
.
.
.अरुण श्री !
"मौलिक व अप्रकाशित"
Comment
कविता का कैनवास बड़ा है. इस कैनवास पर शब्द रंगने के लिए धन्यवाद.
यह सही है, देश करवट लेता दिख रहा है. आगे की उम्मीदों को सच्चाई मिले जो रोमांचकारी और उत्फुल्लताप्रदायी हो. वर्ना इसी कविता ने अबतक की उम्मीदों के हश्र का जो कोलाज साझा किया है वह विद्रुपकारी ही है.
कविता की उबाल आश्वस्त करती है. परन्तु एक बात और है, उबाल के प्रकारों में एक प्रकार दूध का ’फफाना’ भी है, जिसे तनिक पनिया दिया जाये ठण्ढी मार के तो एकबार में फुस्स हो जाता है.
भस्मीभूत उम्मीदों की राख शिवत्वधारी भभूत हो. और, उम्मीदें फिनिक्स का जीवन जीये...
आमीन !
कचोटती उबालों को ऐसे ही शब्द देते रहें. हमें भी खासी उम्मीदें हैं. :-)))
एक बार फिर से मन खुश कर दिया आपने भाई.
जय-जय
हिलाने वाली , झकझोरने वाली ..क्रांतिकारी रचना ..वर्तमान परिदृश्य का बखूबी चित्रण करती रचना ..बिलकुल हट कर ताजगी से भरी इस रचना के लिए हार्दिक बधाई सादर
वर्तमान का आकलन और भविष्योन्मुख विचारदृष्टि का सार है अग्निधर्मा शब्दों में। अपने आग्नेय प्रभाव के साथ उत्कृष्ट और आश्वस्त करती कविता के लिए अरुण श्री जी को बधाई -जगदीश पंकज
आपको पढ़ना मेरे लिए उपलब्धि है और यह गर्व की बात कि मैं आपको जानता हूँ. आपकी लेखनी के लिए मैं इससे अधिक क्या कह सकता हूँ? आपके लिखे पर इससे अधिक कुछ कहना मेरे लिए अपने ही सामर्थ्य को चुनौती देने जैसा ही है.
आपकी इस बेबाक रचना के लिए आपको हार्दिक बधाई!
बहुत कुछ कहती है ...आपकी कविता...
कुछ दिन और इंतजार कर ले
मंदिर गुरूद्वारे में संहार कर लें,
अब बोधिवृक्ष नहीं, दरिंदगी का दीदार कर लें!
प्रिय अरुण जी
आपको पढ़ना अच्छा लगता है i आपके पास जादुई कलम है i आपके ह्रदय में कितनी ज्वाला है मै नहीं जानता मगर आप की लेखनी आग उगलती है i आप सही मायने में नैचुरल कवि है - एक क्रांतिकारी कवि - ठीक भी है -
जब तक मन में आग तभी तक ओठ कलम के गीले है i
शुब कामना सहित i
सच! आपकी रचना बहुत गहरा प्रभाव छोडती है,आदरणीय अरुण श्री जी
इस कविता की शीर्षक ही बहुत कुछ कह दिया कि वर्तमान के गर्भ में क्या है...और भविष्य में क्या होने वाला है....अनेकों साधुवाद अरून श्री जी.....सादर
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