दोहे आज के .....
बिगड़े हुए समाज का, बोलो दोषी कौन ।
संस्कारों के ह्रास पर, आखिर हम क्यों मौन ।।
संस्कारों को आजकल, भला पूछता कौन ।
नंगेपन के प्रश्न पर, आखिर हम क्यों मौन ।।
नर -नारी के मध्य अब, नहीं शरम की रेख ।
खुलेआम अभिसार का, देख तमाशा देख ।।
सरेआम अब हो रहा, काम दृष्टि का खेल ।
युवा वर्ग में आम अब, हुआ अधर का मेल ।।
सभी तमाशा देखते, कौन करे प्रतिरोध ।
कल के बिगड़े रंग का, नहीं किसी को बोध ।।
कर में कर को थाम कर, चले…
ContinueAdded by Sushil Sarna on June 27, 2024 at 9:27pm — No Comments
दोहे सप्तक . . . . . सच-झूठ
अभिव्यक्ति सच की लगे, जैसे नंगा तार ।
सफल वही जो झूठ का, करता है व्यापार ।।
झूठों के बाजार में, सत्य खड़ा लाचार ।
असली की साँसें घुटें, आडम्बर भरमार ।।
आकर्षक है झूठ का, चकाचौंध संसार ।
निश्चित लेकिन झूठ की, किस्मत में है हार ।।
सच के आँगन में उगी, अविश्वास की घास ।
उठा दिया है झूठ ने, सच पर से विश्वास ।।
झूठ जगाता आस को, सच लगता आभास ।
मरीचिका में झूठ की, सिर्फ प्यास ही प्यास ।।
सत्य पुष्प पर झूठ…
ContinueAdded by Sushil Sarna on June 18, 2024 at 9:13pm — No Comments
दोहा पंचक. . . सागर
उठते हैं जब गर्भ से, सागर के तूफान ।
मिट जाते हैं रेत में, लहरों के अरमान ।।
लहर- लहर में रेत पर, मचलें सौ अरमान ।
मौन तटों पर प्रेम की, रह जाती पहचान ।।
छलकी आँखें देख कर, सूना सागर तीर ।
किसके अश्कों ने किया, खारा सागर नीर ।।
कौन बनाता है भला, सागर तीर मकान ।
अरमानों को लीलता, इसका हर तूफान ।।
देखा पीछे पर कहाँ, जाने गए निशान ।
हर वादे को दे गया, घाव एक तूफान ।।
सुशील सरना /…
ContinueAdded by Sushil Sarna on June 10, 2024 at 1:00pm — 6 Comments
दोहा सप्तक. . . . . रिश्ते
रिश्ते नकली फूल से, देते नहीं सुगंध ।
अर्थ रार में खो गए, आपस के संबंध ।।
रिश्तों के माधुर्य में, आने लगी खटास ।
मिलने की ओझल हुई, संबंधों में प्यास ।।
गैरों से रिश्ते बने, अपनों से हैं दूर ।
खून खून से अब हुआ, मिलने से मजबूर ।।
झूठी हैं अनुभूतियाँ , कृत्रिम हुई मिठास ।
रिश्तों को आते नहीं, अब रिश्ते ही रास ।।
आँगन में खिंचने लगी, नफरत की दीवार ।
रिश्तों की गरिमा…
Added by Sushil Sarna on June 7, 2024 at 8:30pm — 6 Comments
दोहा पंचक. . . . . दम्भ
हर दम्भी के दम्भ का, सूरज होता अस्त ।
रावण जैसे सूरमा, होते देखे पस्त । ।
दम्भी को मिलता नहीं, जीवन में सम्मान ।
दम्भ कुचलता जिंदगी, की असली पहचान ।।
हर दम्भी को दम्भ की, लगे सुहानी नाद ।
इसके मद में चूर वो, बन जाता सैयाद ।।
दम्भ शूल व्यक्तित्व का, इसका नहीं निदान ।
आडम्बर के खोल में, जीता वो इंसान ।।
दम्भी करता स्वयं का, सदा स्वयं अभिषेक ।
मैं- मैं को जीता सदा, अपना हरे…
Added by Sushil Sarna on June 2, 2024 at 6:56pm — No Comments
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