वो घर ग़मज़दा था
ग़म का मैक़दा था
कुछ चिंगारियां थी
बाकी तो धुंआ था
हवा की सरसराहट
अजब सन्नाटा था
दरो दीवार सीली थी
वो रात भर रोया था
शक इक वज़ह थी
घर बिखर गया था
.
मुकेश इलाहाबादी ---
मौलिक/अप्रकाशित
Added by MUKESH SRIVASTAVA on July 13, 2014 at 11:00pm — 8 Comments
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