बह्र : २१२२ १२१२ २२
आजकल ये रुझान ज़्यादा है
ज्ञान थोड़ा बयान ज़्यादा है
है मिलावट, फ़रेब, लूट यहाँ
धर्म कम है दुकान ज्यादा है
चोट दिल पर लगी, चलो, लेकिन
देश अब सावधान ज़्यादा है
दूध पानी से मिल गया जब से
झाग थोड़ा उफ़ान ज़्यादा है
पाँव भर ही ज़मीं मिली मुझको
पर मेरा आसमान ज़्यादा है
ये नई राजनीति है ‘सज्जन’
काम थोड़ा बखान ज़्यादा है
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(मौलिक एवं…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on July 20, 2014 at 3:35pm — 21 Comments
बह्र : २१२ २१२ २१२
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जाल सहरा पे डाले गए
यूँ समंदर खँगाले गए
रेत में धर पकड़ सीपियाँ
मीन सारी बचा ले गए
जो जमीं ले गए हैं वही
सूर्य, बादल, हवा ले गए
सर उन्हीं के बचे हैं यहाँ
वक्त पर जो झुका ले गए
मैं चला जब तो चलता गया
फूट कर खुद ही छाले गए
जानवर बन गए क्या हुआ
धर्म अपना बचा ले गए
खुद को मालिक समझते थे वो
अंत में जो निकाले…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on July 6, 2014 at 2:00pm — 24 Comments
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