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धर्मेन्द्र कुमार सिंह's Blog – August 2016 Archive (3)

सब खाते हैं एक बोता है (ग़ज़ल)

बह्र : २२ २२ २२ २२

 

सब खाते हैं एक बोता है

ऐसा फल अच्छा होता है

 

पूँजीपतियों के पापों को

कोई तो छुपकर धोता है

 

एक दुनिया अलग दिखी उसको

जिसने भी मारा गोता है

 

हर खेत सुनहरे सपनों का

झूठे वादों ने जोता है

 

महसूस करे जो जितना, वो,

उतना ही ज़्यादा रोता है

 

मेरे दिल का बच्चा जाकर

यादों की छत पर सोता है

 

भक्तों के तर्कों से ‘सज्जन’

सच्चा तो केवल…

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Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on August 25, 2016 at 11:37am — 8 Comments

आ मेरे ख़यालों में हाज़िरी लगा दीजै (ग़ज़ल)

बह्र : २१२ १२२२ २१२ १२२२

 

आ मेरे ख़यालों में हाज़िरी लगा दीजै

मन की पाठशाला में मेरा जी लगा दीजै

 

फिर रही हैं आवारा ये इधर उधर सब पर

आप इन निगाहों की नौकरी लगा दीजै

 

दिल की कोठरी में जब आप घुस ही आये हैं

द्वार बंद कर फौरन सिटकिनी लगा दीजै

 

स्वाद भी जरूरी है अन्न हज़्म करने को

प्यार की चपाती में कुछ तो घी लगा दीजै

 

आग प्यार की बुझने लग गई हो गर ‘सज्जन’

फिर पुरानी यादों की धौंकनी लगा…

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Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on August 16, 2016 at 9:00pm — 16 Comments

देखो क्या क्या करके नोट बनाते हैं हम (ग़ज़ल)

बह्र : 22 22 22 22 22 22

 

तेज़ दिमागों को रोबोट बनाते हैं हम

देखो क्या क्या करके नोट बनाते हैं हम

 

दिल केले सा ख़ुद ही घायल हो जाता है

शब्दों से सीने पर चोट बनाते हैं हम

 

सिक्का यदि इंकार करे अपनी कीमत से

झूठे किस्से गढ़कर खोट बनाते हैं हम

 

नदी बहा देते हैं पहले तो पापों की

फिर पीले कागज की बोट बनाते हैं हम

 

पाँच वर्ष तक हमीं कोसते हैं सत्ता को

फिर चुनाव में ख़ुद को वोट बनाते हैं…

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Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on August 9, 2016 at 10:10pm — 8 Comments

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