२ १ २ २ १ १ २ २ २ २
जिंदगी कैसी कज़ा चाहती है
मर के जीने की दुआ चाहती है
.
बीत गया जो तुझे साथ मुबारक
मेरी दुनिया तो नया चाहती है
.
वो अगर चाहे हमें क्षमा कर दे,
अब मगर वो भी सज़ा चाहती है
.
छीन ली उस ने हमारी दुनिया,
छीन अब न सके खुदा चाहती है
.
वो छुपा लेती है अँधेरा खुद में
जिन से लौ उन का पता चाहती है
.
जो थी मंजल हमें दिखाने निकली ,
राह में भटकी पता चाहती है
मौलिक…
ContinueAdded by मोहन बेगोवाल on August 31, 2013 at 10:30pm — 10 Comments
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