बह्र : १२२ १२२ १२२ १२२
सनम छोड़ जाते हैं यादों के मेले
हम उनके बिना भी रहे कब अकेले
मैं समझाऊँ कैसे ये चारागरों को
उन्हें छू के हो जाते मीठे करेले
रहे यूँ ही नफ़रत गिराती नये बम
न कम कर सकेगी मुहब्बत के रेले
मैं कितना भी कह लूँ ये नाज़ुक बड़ा है
सनम बेरहम दिल से खेले तो खेले
इन्हें दे नये अर्थ नन्हीं शरारत
वगरना निरर्थक हैं जग के झमेले
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(मौलिक एवं…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on November 27, 2016 at 6:30pm — 12 Comments
बह्र : १२२२ १२२२ १२२
उतर जाए अगर झूठी त्वचा तो।
सभी हैं एक से साबित हुआ, तो।
शरीअत में हुई झूठी कथा, तो।
न मर कर भी दिखा मुझको ख़ुदा, तो।
वो दोहों को ही दुनिया मानता है,
कहा गर जिंदगी ने सोरठा, तो।
समझदारी है उससे दूर जाना,
अगर हो बैल कोई मरखना तो।
जिसे मशरूम का हो मानते तुम,
किसी मज़लूम का हो शोरबा, तो।
न तुम ज़िन्दा न तुममें रूह ‘सज्जन’
किसी दिन गर यही…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on November 19, 2016 at 10:08pm — 10 Comments
हमें साथ रहते दस वर्ष बीत गये
दस बड़ी अजीब संख्या है
ये कहती है कि दायीं तरफ बैठा एक
मैं हूँ
तुम शून्य हो
मिलकर भले ही हम एक दूसरे से बहुत अधिक हैं
मगर अकेले तुम अस्तित्वहीन हो
हम ग्यारह वर्ष बाद उत्सव मनाएँगें
क्योंकि अगर कोई जादूगर हमें एक संख्या में बदल दे
तो हम ग्यारह होंगे
दस नहीं
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(मौलिक एवंं अप्रकाशित)
Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on November 9, 2016 at 8:02pm — 3 Comments
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