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Manan Kumar singh's Blog – November 2017 Archive (2)

गजल(हर दफा

हर दफा कुछ बात रह जाती है

रेत वाली भीत ढ़ह जाती है।1



था गुमां अपना परिंदों पर भी

इक चिड़ी गुलाम कह जाती है।2



जब्त सारी ख्वाहिशें हैं,कह तो

एक भी कोई निबह जाती है?3



साँझ उतरे जब गगन का रूप ले

नज्र यह प्यासी उछह जाती है।4



चाँद मुट्ठी में नहीं आता अब

चाँदनी अंतर को' मह जाती है।5



इक लहर आसार है साहिल का

क्यूँ हवा हर बार बह जाती है।6



लाख सितम बरपा' लो,सालो भी,

यह जमीं लाचार सह जाती है।7

"मौलिक व… Continue

Added by Manan Kumar singh on November 3, 2017 at 10:13am — 10 Comments

वक्त की बात(व्यंग्य के निमित्त)

रात अपनी जवानी पर थी,चाँद अपने शबाब की ऊँचाई पर।साँसों में असहास कायम था।झक शीतल रोशनी में रात सिहरती,शरमाती।चाँद खिलखिलाता,और खिलखिलाता। यह क्रम ज्यादा देर तक नहीं चला।अरे यह क्या!वक्त की निस्तब्धता भंग होती -सी लगी। कहीं से किसी अज्ञात पक्षी ने पंख फड़फड़ाये।शायद अकस्मात् नींद से जगा हो।कहीं नींद में ही सबेरा न हो जाये,इसलिए आकुल हो शायद। रात अपना काला दुपट्टा समेटने लगी।चाँद को यह नागवार लगा।उसकी चाहत अभी परवान चढ़ी ही कहाँ!सबेरा होने की शुरुआत इतनी जल्दी क्यूँ हो जाती है भला?बिलकुल सुख के… Continue

Added by Manan Kumar singh on November 1, 2017 at 9:58am — 4 Comments

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