दुनिया को दुनिया क्यों कहते हैं ?
इंसानों की दुकान क्यों नहीं कहते ?
जहाँ इंसान बिकते हैं..
बिकते हैं कुछ हो बेआबरू यहाँ, कुछ हैं जो होकर महान बिकते हैं..
देते हजारों को गुलामी ये जन ,खुदको शहंशाह मान बिकते हैं..
लो हो गयीं शख्सियतें कीमती, खरीदो ये महंगे सामान बिकते हैं..
हो गए हैं जिंदगी से खाली शायद, जिस्म बिकते हैं जैसे मकान बिकते हैं..
पूछा तो बोले इसमें शर्म कैसी, हमें फक्र है हम सीना तान बिकते हैं..
देखी जो जमीं की…
ContinueAdded by Bhasker Agrawal on December 2, 2011 at 4:00pm — 2 Comments
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