रात के कुएं में
क्या मैं हूँ कूपमंडूक की भांति
और मुझे भान नहीं
उजालों के अस्तित्व का.
या कि हूँ एक भागा हुआ आदमी -
उजालों के भय से.
कुछ भी सोचो, तय यही है,
मुझसे गप्पें मारतीं रातें
पूछतीं नहीं- 'तुम क्यों हो नंगे' .
दिखातीं नहीं मेरी दुरवस्था औरों को,
घर की बात समझतीं हैं.
कह रही थी वह-
एक भाई है मेरा,
मेरी प्रकृति के विपरीत,
सवाल करता है बहुत,
पटरी बैठती नहीं मेरी-उसकी.
मौलिक व…
Added by shree suneel on April 5, 2015 at 1:30am — 6 Comments
अस्थियाँ चटकीं थीं तेरी कलाई की,
मुझसे हाँथ मिलाते हुए.
इसे समझी थी तुम, शायद,
मेरी शरारत, और,
मैं क्या समझा था, मुझे कुछ याद नही.
और अब- जबकि उसके बाद,
तुम आज तक न मिल सकी ,
सोचता हूँ - -
अस्थियों की वो चटक,
क्या एक प्रहेलिका थी
जिसका अर्थ था-
रिश्ते का 'फाइनल कट्'.
मौलिक व अप्रकाशित
Added by shree suneel on March 30, 2015 at 11:30pm — 18 Comments
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