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दुष्यंत सेवक's Blog (12)

सज़ा

शब्दों की जुगाली
करत रहा मनवा ये मवाली
लुच्चे से ख़यालात
लफंगे से अहसास
बदमाश जज़्बात
सोच रहा हूँ
सुना दूं इन्हें
उम्रकैद की सज़ा
डायरी के पन्नों में

Added by दुष्यंत सेवक on April 21, 2012 at 5:27pm — 9 Comments

हाइकु

१. मनमीत रे 

    धोरे हो गए केश 
    मन रंगीला 
२. मनमीत रे 
    जग ने बिसराया
    तू ही संग है 
३. मनमीत रे 
    छोटी सी ये दुकान 
    जग अपना 
४. मनमीत रे 
    उम्र का है ढलान 
    नेह बढ़ाएं 
५. मनमीत रे 
    धन की नहीं आस 
    प्रीत है धन 
६. प्रियतमा री 
    मीठा लागे चुम्बन 
    भिगोया मन 
७.…
Continue

Added by दुष्यंत सेवक on February 18, 2012 at 5:30pm — 5 Comments

आज तिमिर का नाश हुआ

आज तिमिर का नाश हुआ
दीपों की लगी कतार
कार्तिक अमावस्या लेकर आई
यह आलोकित उपहार

द्वार द्वार पर दीप जलें
घर घर हुआ श्रृंगार
हर देहरी प्रदीप्त हुई
बिखरा हर्ष अपार

झाड़ बुहार आँगन को
लक्ष्मी को दें आमंत्रण
करबद्ध हो सब करें
मन से रमा का वंदन

सभी को शुभ दीपावली...
दुष्यंत..........

Added by दुष्यंत सेवक on October 24, 2011 at 6:38pm — 4 Comments

किसी और के पास कहाँ

घर शिफ्टिंग के दौरान एक पुरानी diary हाथ लगी और गर्द झाड़ी तो यह रचना नमूदार हुई. इस पर तारीख अंकित थी 12-8-1999...मैने सोचा कच्ची उम्र और कच्ची सोच की यह रचना के सुधि पाठकों की नज़र की जाए.

तुम्हारी जो ख़बर हमें है

वो किसी और के पास कहाँ

देख लेता हूँ कहकहों में भी

आंसू के कतरे

ऐसी नजर किसी और के पास कहाँ



ज़माने ने ठोकरें दी पत्थर समझकर

तुने मुझे सहेज लिया मूरत समझकर

होगी अब हमारी गुजर

किसी और के पास कहाँ



उम्र भर देख लिया

बियाबान में…

Continue

Added by दुष्यंत सेवक on September 13, 2011 at 6:44pm — 6 Comments

अन्ना आन्दोलन की नज़र चंद पंक्तियाँ (वसीम बरेलवी)

अपने हर लफ़्ज़ का ख़ुद आईना हो जाऊँगा
उसको छोटा कह के मैं कैसे बड़ा हो जाऊँगा

तुम गिराने में लगे थे तुम ने सोचा भी नहीं
मैं गिरा तो मसअला बनकर खड़ा हो जाऊँगा

मुझ को चलने दो अकेला है अभी मेरा सफ़र
रास्ता रोका गया तो क़ाफ़िला हो जाऊँगा

सारी दुनिया की नज़र में है मेरी अह्द—ए—वफ़ा
इक तेरे कहने से क्या मैं बेवफ़ा हो जाऊँगा?

/ वसीम बरेलवी

Added by दुष्यंत सेवक on August 20, 2011 at 12:00pm — 4 Comments

महिला दिवस पर विशेष

सृष्टि की अनमोल कृति
कभी दुलारती मां बन जाती
कभी बहन बन स्नेह जताती
बेटी बन जब पिया घर जाती
आँसू की धारा बह जाती
कभी पत्नी बन प्यार लुटाती
बहु बन घर को स्वर्ग बनाती
नारी तेरे बहुविध रूपों से
यह संसार चमन है
महिला दिवस पर हर नारी को बारम्बार नमन है
दुष्यंत...

Added by दुष्यंत सेवक on March 8, 2011 at 12:00pm — 5 Comments

मेघों का अम्बर में लगा अम्बार

मेघों का अम्बर में लगा अम्बार
थकते नहीं नैना दृश्य निहार
हर मन कहे ये बारम्बार
आहा!आषाढ़..कोटि कोटि आभार

धरा ने ओढी हरित चादर निराली
लहलहाए खेत बरसी खुशहाली
तन मन भिगोये रिमझिम फुहार
आहा! आषाढ़.. कोटि कोटि आभार


भीगे गाँव ओ' नगर सारे
थिरकीं नदियाँ छोड़ कूल किनारे
अठखेलियाँ करे पनीली बयार
आहा! आषाढ़. कोटि कोटि आभार
दुष्यंत...

Added by दुष्यंत सेवक on July 5, 2010 at 12:05pm — 9 Comments

संसद भवन में

स्वांग धरे तरै तरै

कुरता और टोपी धरे

देखो कैसे कैसे आए

संसद भवन में



बातें करे बड़ी बड़ी

जनता की है किसे पड़ी

वही तो नेता कहाए

संसद भवन में



राज राज करे बस

नीति सारी भूल जाएँ

हैं सारे छंटे-छंटाये

संसद भवन में



भूख से हैं मरते जहाँ

हजारों औ लाखों लोग

ये बिना डकारे खाएं

संसद भवन में



इसे खरीद, उसे बेच, इसे जोड़, उसे तोड़

जैसे तैसे करके, लेते ये आकार हैं

ऐसे में भलाई की सुधि कब कौन… Continue

Added by दुष्यंत सेवक on June 11, 2010 at 11:41am — 5 Comments

इसी जद्दोज़हद में

इसी जद्दोज़हद में
ज़िन्दगी बसर कर रहे हैं
हर्फ़ हर्फ़ जोड़ कर ज्यों
सफे भर रहे हैं

अधूरी है रदीफ़
काफिया नहीं है पूरा
तुकबंदी मिलाने की बस
जुगत कर रहे हैं

ज़िन्दगी गो कि
इक ग़ज़ल है
रूठा हुआ हमसे
अभी ये शगल है
अशआरों की तरह
उमड़ते हैं
चेहरे कई लेकिन
'मीटर' जो बैठ जाए
वही भर पन्नो पर
उतर रहे हैं
दुष्यंत .............

Added by दुष्यंत सेवक on May 31, 2010 at 4:31pm — 9 Comments

आज की ग़ज़ल

इस पिघलती शाम को अपना बनाया जाए
उसका ज़िक्र छेड़ो, कुछ सुना-सुनाया जाए

आंखों में खलल देती है शमअ बेवफा
बुझा दो इसे, वफ़ा का सबक सिखाया जाए

अक्सर ख़याल-ऐ-यार ही देता है खुमारी
ज़रा जाम भी भरो यारों, इसे और बढाया जाए

गहराया है नशा, ज़रा तेज़ रक्स हो
गहरा गई है रात, ख़्वाब कोई सजाया जाए
दुष्यंत......

Added by दुष्यंत सेवक on May 21, 2010 at 11:42am — 5 Comments

दियार-ऐ-इश्क़* से गुजर जाने से पहले,

दियार-ऐ-इश्क़* से गुजर जाने से पहले,

थे होशमंद, न थे दीवाने से पहले

*इश्क का शहर



सब्ज़ बाग़, सुर्ख गुल हम देख ही न पाये,

खिजां आ गई बहार आने से पहले



बज़्म* में उनकी मुहब्बत एक तमाशा है,

मालूम न था हमें, वहां जाने से पहले

*बज़्म- महफिल



मेरा नाखुदा* तो नाशुक्रा निकला,

रज़ा भी न पूछी, डुबाने से पहले

*नाखुदा- मल्लाह, नाविक



कैस, फरहाद, रांझा तो बीते दिनों की बात है,

राब्ता* रखिये जनाब, नए ज़माने से पहले

*राब्ता-… Continue

Added by दुष्यंत सेवक on May 20, 2010 at 1:05pm — 14 Comments

घिर आये स्याह बादल सरे शाम

घिर आये स्याह बादल सरे शाम
स्याह*-काले
और उदास ये जेहन क्यूँ हुआ
जेहन*-मन
पोशीदाँ अहसास क्यूँ उभर आये
पोशीदाँ*-छुपा हुआ
ये दिल तनहा दफ्फअतन क्यूँ हुआ
दफ्फअतन*-अचानक
यूँ तो अब तक चेहरे की ख़ुशी छुपाते थे
ग़म छुपाने का ये जतन क्यूँ हुआ
कोई चोट तो गहरी लगी होगी
ये संगतराश यूँ बुतशिकन क्यूँ हुआ
संगतराश*-मूर्तिकार, बुतशिकन*-मूर्तिभंजक
दुष्यंत......

Added by दुष्यंत सेवक on May 20, 2010 at 12:30pm — 7 Comments

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