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ग़ज़ल ( नहीं था इतना भी सस्ता कभी मैं....)

(1222 1222 122)

नहीं था इतना भी सस्ता कभी मैं
बशर हूँ ,था बहुत मंहगा कभी मैं

अभी जिसने रखा है घर से बाहर
उसी के दिल में रहता था कभी मैं

जिसे कहते हो तुम भी झोपड़ी अब
मिरा घर है वहीं पर था कभी मैं

वहाँ पर क़ैद कर रक्खा है उसने
जहाँ देता रहा पहरा कभी मैं

सड़क पर क़ाफिला है साथ मेरे
नहीं इतना रहा तन्हा कभी मैं

मुझे भी तुम अगर तिनका बनाते
हवा के साथ उड़ जाता कभी मैं

बनाया है मुझे सागर उसीने
हुआ करता था इक सहरा कभी मैं

मैं जैसा हूँ सदा वैसा रहूँगा
न बन पाया तिरे जैसा कभी मैं

*मौलिक एवं अप्रकाशित

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Comment

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Comment by सालिक गणवीर on May 26, 2020 at 1:06pm
आदरणीय अमीरुद्दीन ख़ान साहब
आदाब
ग़ज़ल पर उपस्थिति एवं सराहना के लिए हृदय से आभार.
Comment by सालिक गणवीर on May 26, 2020 at 1:05pm
आदरणीय समर कबीर साहब
आदाब
ग़ज़ल पर उपस्थिति एवं सराहना के लिए हृदय से आभार.
जनाब क्या सस्ते और मंहगे में कोई रब्त नहीं?फ़िर भी आपकी इस्लाह पर मतला बदलने की कोशिश करता हूँ.
Comment by अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी on May 25, 2020 at 7:56pm

जनाब भाई सालिक गणवीर जी, आदाब। वाह क्या ख़ूब ग़ज़ल कही है। दिल में उतरने और इन्सानी जज़्बात बयां करने वााली रचना के लिये तहे-दिल से मुबारकबाद पेश करता हूँ ।

Comment by Samar kabeer on May 25, 2020 at 7:55pm

जनाब सालिक गणवीर जी आदाब, ग़ज़ल का अच्छा प्रयास है, बधाई स्वीकार करें ।

मतले के दोनों मिसरे अलग अलग हैं उनमें रब्त पैदा नहीं हो सका, देखियेगा ।

Comment by सालिक गणवीर on May 25, 2020 at 4:41pm

आदरणीय भाई लक्ष्मण धामी जी.
ग़ज़ल पर उपस्थिति एवं सराहना के लिए हृदय से आभार.

Comment by सालिक गणवीर on May 25, 2020 at 4:40pm

आदरणीय भाई डा.छोटे लाल सिंह जी.
ग़ज़ल पर उपस्थिति एवं सराहना के लिए हृदय से आभार.

Comment by डॉ छोटेलाल सिंह on May 25, 2020 at 8:53am

आदरणीय सालिक गणवीर साहब कमाल की गजल प्रस्तुत की आपने,न बन पाया तेरे जैसा कभी मैं ,बहुत सुंदर मन मगन हो गया बधाई कुबूल कीजिए

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on May 24, 2020 at 4:40pm

आ. भाई सालिक गणवीर जी, सादर अभिवादन । उम्दा गजल हुई है । हार्दिक बधाई ।

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