यूँ तो अपना था वो कहने को
पर वो अपना हो ऐसा एहसास कहाँ,
उनके दिल में उतर कर देखा जो ख़ुद को
तो जाना उनके दिल में अपना ठौर कहाँ,
ख़ुद तजुर्बा ये मैने है पाया
इस दुनिया में वफ़ा का मोल कहाँ,
झूठे वादों पर चलती है दुनिया
सच का तो अब है मौन यहाँ,
यूँ तो अपना था वो कहने को
पर वो भी अपना हो ऐसा एहसास कहा,
मौलिक/ अप्रकाशित
रोहित डोबरियाल "मल्हार"
Comment
रोहित डोबरियाल साहब, काव्य रचना है तो काव्यानुशासन अनिवार्य है, बंधुवर !
Chetan prakash ji मैं आपका कहना समझ रहा हूँ किंतु ये बस भावनाएं हैं जो लिखी है ....अन्यथा न लें
Chetan prakash साहब भावनाएं विधा में ही लिखी जाएं ये जरूरी तो नही है
जी, आदाब, आदरणीय, आप बेहतर समझते हैं, नज़्म कहन में निरन्तरता के होते ही बोधगम्य होती है , शुभ रात्रि !
//यूँ तो अपना था वो कहने को" पहली पंक्ति से शुरू होकर तीसरी पंक्ति " उनके दिल में उतर कर देखा जो खुद को//
भाई चेतन जी, आप शायद ये कहना चाहते हैं कि या तो पहली पंक्ति यूँ होना चाहिये--'यूँ तो अपने थे वो कहने को'
या पहली ज्यूँ की त्यूँ रहने दें तो तीसरी पंक्ति यूँ होना चाहिये 'उसके दिल में उतर कर देखा जो ख़ुद को'?
मैंने पंक्तियां उद्धृत की हैं, जनाब, फिर समझने को क्या रह जाता है, सिवाय आपके विधा को समने के!
Chetan prakash ji आप एक बार पंक्तियों को समझें, वैसे सुझाव के लिए शुक्रिया
अमीरुद्दीन अमीर साहब शुक्रिया
आदाब, रोहित डोबरियाल साहब, कविता, और वो भी, मुक्त छंद में अभिव्यक्त अन्तर सम्बन्धों पर , चाहे संक्षिप्त ही क्यों न हो, सावधानी चाहिए! " यूँ तो अपना था वो कहने को" पहली पंक्ति से शुरू होकर तीसरी पंक्ति " उनके दिल में उतर कर देखा जो खुद को" मे स्वयं देखें भटकाव की शिकार है ! सादर
जनाब रोहित डोबरियाल 'मल्हार' जी आदाब, अच्छी रचना हुई बधाई स्वीकार करें।
'उनके दिल में उतर कर देखा जो ख़ुद को' इस पंक्ति में टंकण त्रुटि हो गई है 'उतर' को 'उतार' कर लें। सादर।
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