2122 1122 1122 22
आँख से अश्कों का दरिया तो बहाया हमने
राज़-ए-दिल पर न किसी से भी बताया हमने
उन का हर एक सितम हँसते हुए सह डाला
इस तरह रस्म-ए-मुहब्बत को निभाया हमने
शम्मा उल्फ़त की जो तुम ने थी जलाई दिल में
उस को बुझने से कई बार बचाया हमने
हैफ़ उस ने ही न की क़द्र वफ़ाओं की मेरी
जिस की उल्फ़त में ही दुनिया को भुलाया हमने
नक़्श मिटते ही नहीं दिल से मुहब्बत के तेरी
कितनी ही बार मगर इन को मिटाया हमने
तीरगी ग़म की कभी हमको डराने जो लगी
तेरी यादों के दिए को ही जलाया हमने
अपनी क़िस्मत के सितारे भी चमकने से लगे
जब से ऐ "नाज़" तुम्हें अपना बनाया हम ने
ममौलिक /अप्रकाशित
Comment
आदरणीय सर नमन 🙏 🌺 आपकी हौसला-अफजाई तथा बेहतरीन इस्लाह का तहेदिल से शुक्रिया ।मै सुधार करती हूँ ।
मुहतरमा ममता गुप्ता जी आदाब, ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है, बधाई स्वीकार करें ।
'राज़-ए-दिल पर न किसी से भी बताया हमने'
इस मिसरे में 'से' की जगह "को" करना उचित होगा, ग़ौर करें ।
'शम्मा उल्फ़त की जो तुम ने थी जलाई दिल'
इस मिसरे को यचित लगे तो यूँ कहें:-
'तुमने जो शम'अ महब्बत की जलाई दिल में'
'हैफ़ उस ने ही न की क़द्र वफ़ाओं की मेरी
जिस की उल्फ़त में ही दुनिया को भुलाया हमने'
इस शे'र में शुतर गुरबा दोष है ।
'कितनी ही बार मगर इन को मिटाया हमने'
इस मिसरे में 'मगर' शब्द भर्ती का है,इसकी जगह "सनम" कर लें ।
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