गर्दभ का हर युग रहे, गर्दभ सा ही हाल
बनता नहीं तुरंग वह, भले लगा ले नाल।१।
*
भूला पुरखे थे कभी, चेतक से बेजोड़
करते तभी तुरंग से, आज गधे भी होड़।२।
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कहते लोग तुरंग को, कब होता घर दूर
चाहे हो वो काठ का, जय लाता भरपूर।३।
*
क्या पौरुष के रंग वो, दिखलाता संसार।
मोड़ न पाया रास जो, बनकर अश्व सवार।४।
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रथ में जोते चल रहा, सूरज सात तुरंग
इसीलिए लड़ पा रहा, तम से लम्बी जंग।५।
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घोड़े पर जो वायु के, होता बहुत सवार
छिन जाता है सत्य ही, उसका हर आधार।६।
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बिना देह के दौड़ता, सरपट पलपल मौन
बाँध सका है बोलिए, मन का घोड़ा कौन।७।
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सैनिक सा चलता नहीं, घोड़ा सीधी चाल
करता नहीं बजीर यूँ, उसको जग में काल।८।
*
ताँगे का घोड़ा नहीं, पाता जग को देख
लिखता जो उन्मुक्त है, इतिहासों में लेख।९।
*
बात हवा सी जो करे, नहीं हवा के संग
कच्छप से भी है गया, कैसे कहें तुरंग।१०।
***
अप्रकाशित/मौलिक
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'
Comment
दोहों पर बढियाँ प्रयास हुआ है भाई लक्ष्मण जी। बधाई लीजिये
आ. भाई सत्यनारायण जी, सादर अभिवादन। दोहों पर उपस्थिति व उत्साहवर्धन के लिए आभार।
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