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स्वतंत्रता के 66 वर्ष  बाद, जन सामान्य को क्या मिला? आज भी सोने की चिड़िया के बचेखुचे पंख, भक्षक बन कर रक्षक ही नोच रहे हैं, अल्पसंख्यकों का एक वर्ग असुरक्षा के नाम पर बहुसंख्यकों पर अविश्वास कर रहा है- राजनेताओं की दादुरनिष्ठाओं से सभी हतप्रभ हैं: - संस्कारहीन समाज अपनी दिशाहीन यात्रा के उन मील के पत्थरों पर नाज कर रहा है जिनके नीचे शोषितों की आहें दफन हैं। ऐसे में, भारतीय लोकतन्त्र का चेहरा किस स्वर्णिम आभा से चमक रहा है?

 

विभेद-की सृष्टि का भेद राजनीति जाने, खेद शहीदीशोणित व्यर्थ हो जाने का है

निरंकुश सत्तालोलुप, श्वानचेष्टी चापलूस, दुराचारी बाहुबली वर्ग पनप जाने का है.

धराशायी करके लोकतन्त्र को चेरी मान, राजभवनों में अंकशायी करवाने का है.

कैसी मर्यादा और, कहां की शालीनता,  मुद्दा आपाधापी से राज हथियाने का है.

 

सभी हैं अशान्त क्लान्त, दिखते मगर धीरवीर, अवसरवादिता ही मूल सिद्धान्त है.

देश की सीमाएं, शत्रु से आक्रान्त लेकिन, प्राथमिकता आज अब देश नहीं प्रान्त हैं.

हो गए परमाणुशक्ति, शस्त्रायुध से लैस तो क्या, घर में ही भेदी कई शत्रु दुर्दांत हैं.

आसन्न संकट में भी, कुत्ताफजीती करें, दूध के धुले ये भ्रष्ट, जन जन अब भ्रांतहैं.

 

जैचन्द ओ मीरजाफर, उपदेश करें देशप्रेम, विषवमन ही मात्र जिनकी पहिचान है.

लाचार-बेचारगी की बानगी से सत्ताधीश, आत्मस्तुति में रत, क्या निराली शान है.

देशहित के नाम पे, विरोध मात्र साध के, सदन में फैलाएं आतंक वो महान हैं.

बात बात बदलें पाला, हर पल हर घड़ी, देख इन दोगलों को गिरगिट हैरान है.

 

चुनाव की वैतरणी, तरने को साथ साथ, सांप और नेवलों की एकता सिद्ध है.

भारत के लालों को तो, सांस भी मुहाल अब, सूखी रोटी भी मिलना निरुद्ध है.

ललनाओं की लाज पे गाज का आग़ाज़ देख आत्मबलिदान हेतु कौन सन्नद्ध है?

जीवन दुश्वार देशसेवा भी व्यापार हुई, राष्ट्रहित काज आज कौन प्रतिबद्ध है?

 

कमर नहीं प्राणशक्ति तोड़ती महंगाई, बदबूदार कीच बिच खिल रहा कमल है.

देश की दशा को देख, दुर्दशा भी रो रही, संवेदनहीनतन्त्र कैसा भुजबल है.

दिशाहीन लोकशक्ति साधन सामर्थ्यहीन, ताकती कोटि कोटि आंखें सजल हैं.

नैन नहीं चेहरे पे लगाओ बड़े चाव से, छियासठ साल में पाया सोने का काजल है!

-मौलिक, अप्रकाशित रचना.

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Comment by Ashok Kumar Raktale on April 23, 2013 at 8:34am

बहुत ही व्याकुलता भरी सुन्दर रचना पर सादर हार्दिक बधाई स्वीकारें आदरणीय सुरेन्द्र वर्मा साहब.

Comment by coontee mukerji on April 20, 2013 at 2:35am

सोने का कजल बहुत सटीक उदाहरण दिया है आपने  ......... लेकिन क्या करें यहाँ सब राम भरोसे है..जागरूक रचना के लिये

बधाई स्वीकार करें. सादर कुंती .

Comment by SANDEEP KUMAR PATEL on April 18, 2013 at 10:02pm

आदरणीय सर जी सादर प्रणाम
बहुत ही भाव पूर्ण रचना सर जी
शायद यही हकीकत है इस सोने की चिडया की
जय हो
बहुत बहुत बधाइ इन उद्गारों के लिए

Comment by वेदिका on April 18, 2013 at 8:31pm

जैचन्द ओ मीरजाफर, उपदेश करें देशप्रेम, विषवमन ही मात्र जिनकी पहिचान है// ऐसे घृणित लोगो के बदौलत ही ये हाल हुए है

दिशाहीन लोकशक्ति साधन सामर्थ्यहीन, ताकती कोटि कोटि आंखें सजल हैं.
सादर सुंदर वेदना की अभिव्यक्ति आदरणीय सुरेन्द्र जी!


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on April 18, 2013 at 6:51pm

स्वतंत्र भारत की तरक्की के स्वप्न देखती आँखों का वास्ता जब सच्चाई से होता है और सत्तालोलुप राजनीति की पग पग पर हुई कारगुजारियों से मन क्रंदित होता है..तब कवि हृदय में उमड़ते भावों की सार्थक अभिव्यक्ति के लिए बहुत बहुत शुभकामनाएँ 


मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on April 18, 2013 at 5:37pm

कवि जो एक लम्बा जीवन व्यतित किया हो, समय ने बहुत कुछ दिखाया होगा, आज हम जिस माहौल में जी रहे है, या जो देख रहे है, उसपर कवि का मन व्यथित होना स्वाभाविक है, कवि का आक्रोश उसकीकविता में अभिव्यक्त हो रही है, बहुत ही सुन्दर अभिव्यक्ति, इस प्रस्तुति पर कवि को कोटि कोटि बधाईयाँ ।

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