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व्यस्तता ,ज़िंदगी ,खेद है ,

आपका तो वचन ,वेद है,

हैं मधुर आप,हम खुरदुरे 
मित्र ,हम में यही भेद है !
*
दर्द के पुष्प आओ तजें,

हर्ष के पुष्प ही अब सजें,

एक स्मिति अधर पर धरें 

नेह की बांसुरी से बजें !
*
उनको दिखना है अब ,नहीं न ,

छुपते रुस्तम दिखे,कहीं न ,

मुक्त आकाश में ढूंढ लो 
खत्म है दौड बस यहीं न !

*
एक यादों का शामियाना है,

इसमें सूराख है,पुराना है,

रोशनी की लकीर दिखती है 

कोई पैबंद क्या लगाना है ?
__________________प्रो.विश्वम्भर शुक्ल ,लखनऊ 

(मौलिक और अप्रकाशित )

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Comment by विजय मिश्र on July 5, 2013 at 2:30pm
पुनः एक सुन्दर भाव प्रस्तुति ,

"एक यादों का शामियाना है,
इसमें सूराख है,पुराना है,
रोशनी की लकीर दिखती है
कोई पैबंद क्या लगाना है ?" - आप जहाँ स्वेम को विराम देते हैं ,मेरा अनुभव है विश्वम्भरजी कि पाठक मन वहाँ से आगे पढ़ने को छटपटा जाता है और आवृति से प्यास बुझाई जाती है .अतिसुन्दर मुक्तक . बधाई .
Comment by वेदिका on July 4, 2013 at 1:53pm

सुंदर मुक्तक!!

मुक्तक के बारे में और भी जानने की चाहत थी!  

Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on July 4, 2013 at 12:52pm

सुस्न्दर मुक्तक कहे है आदरणीय श्री विश्मभर शुक्ल जी, बधाई स्वीकारे 

Comment by रविकर on July 4, 2013 at 9:05am

बढ़िया है-
शुभकामनायें-

Comment by D P Mathur on July 4, 2013 at 7:23am

आदरणीय सर नमस्कार,
बहुत अच्छी रचना

Comment by Abhishek Kumar Jha Abhi on July 4, 2013 at 1:15am
वाह
बहुत सुंदर

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