उड़न -खटोले पर चढ़े, आये 'प्रभु' निर्दोष,
अपनी निष्क्रिय फ़ौज में जगा गए कुछ जोश !
राहत की चाहत जिन्हें उन्हें न पूछे कोय ,
इधर-उधर घूमे फिरे और गए फिर सोय !
भटक रहे विपदा पड़े, ढूंढ रहे हैं ठांव ,
ये अपने सरकार जी कब बांटेंगे छाँव ?
विपदा खूब भुना रहे सत्ता का सुख भोग,
भूखे,नंगे ,काँपते इन्हें न दिखते लोग !
श्रेय कौन ले जाएगा मची हुई है होड़,
जोड़-तोड़ के खेल में गए कई रण-छोड़ !
_____________________प्रो.विश्वम्भर शुक्ल
(मौलिक और अप्रकाशित )
Comment
bahut khoob Vishambhar sahab apka jawaab nahi facebook pe bhi or yahan bhi
उड़न -खटोले पर चढ़े, आये 'प्रभु' निर्दोष,
अपनी निष्क्रिय फ़ौज में जगा गए कुछ जोश !
बहुत सुंदर सामयिक दोहे, आदरणीय विश्वंभर जी, हार्दिक बधाई आपको!
आपकी यह समसामयिक रचना बहुत सुन्दर है! हार्दिक बधाई आपको!
विपदा खूब भुना रहे सत्ता का सुख भोग,
भूखे,नंगे ,काँपते इन्हें न दिखते लोग !....
प्रशासन पर सटीक दोहा लिखा है आदरणीय
सभी दोहे सामयिक घटनाक्रम को सटीकता से बखान करते हैं
सादर.
आजके घटनाक्रम पर नज़र और उसकी नब्ज़ पर बखूबी उँगलियाँ रखी हैं. यह रचनाकार की संवेदनशीलता को बताता है,
बहुत बहुत बधाई इन दोहों पर आरणीय.
आदरणीय विशम्भर शुक्ल जी, सुंदर और सामयिक दोहों के लिये बधाई..............
आ0 विश्वम्भर सर जी, अतिसुन्दर दोहे। हार्दिक बधाई स्वीकारें। सादर,
बहुत सुंदर सामयिक दोहे ,बधाई स्वीकारें
वाह आदरणीय प्रोफ़ेसर साहब, एक दम सामयिक दोहावली लिखी है, सभी दोहें अच्छे लगें, बधाई स्वीकार करें .
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