आँख मिचौली खेलता, मुझसे मेरा मीत
अंतरमन के तार पर, गाए मद्धम गीत
जैसे सूरज में किरण, चन्दन बसे सुगंध
प्रियतम से है प्रीत का, मधुरिम वह सम्बन्ध
क्यों अदृश्य में खोजता, मनस सत्य के पाँव
सहज दृश्य में व्याप्त जब, उसकी निश्छल छाँव
संवेदन हर गुह्यतम, सहज चित्त को ज्ञप्त
आप्त प्रज्ञ सम्बुद्ध वो, ज्ञानांजन संतृप्त
प्रीत प्रखरता जाँचती, नित्य नियति की चाल
मोहन लोभन फाँसते, छद्म इन्द्र के जाल
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
आदरणीय बृजेश जी
दोहावली के भाव आपको संतुष्ट कर सके ये मेरे लेखन के लिए परम संतोष का कारण है...
आपका हार्दिक आभार
सादर
आदरणीय सौरभजी
प्रतिदोहा भाव मर्म पर आपसे अनुमोदन मिलना सम्प्रेषण की सफलता के प्रति आश्वस्त करता है...जिसके लिए मैं ह्रदय से आभारी हूँ. ख़ास तौर से पांचवे दोहे के मर्म पर आपका भावार्थ देना आत्मीय संतुष्टि प्रदान कर गया....सादर.
//आप सही कहते हैं आदरणीय अनुबंध की जगह सम्बन्ध शब्द ही सर्वथा उचित प्रतीत होता है//... ये भी बिलकुल सच है कि आत्मस्वरुप ( जिसे यहाँ प्रियतम कहा गया है) से एकत्व किसी सम्बन्ध से भी परे ही होता है.. बिम्ब इसी भावप्रस्तुति के अनुरूप ही चयनित किये गए हैं.. लेकिन उस उच्च भाव का सौम्य मानवीकरण अगली पंक्ति में सरल शब्दों में प्रस्तुत किया गया है.. तो सम्बन्ध ही कह देना उचित लगता है..
मार्गदर्शन के लिए आभार आदरणीय
सादर
अनुपम दोहे! भावाभिव्यक्ति और शिल्प दोनों के लिहाज से अप्रतिम! इस सुन्दर प्रस्तुतीकरण पर आपको हार्दिक बधाई!
डॉ. प्राची, क्या छंद हुए हैं !! अनुपम !!!
जहाँ पहला दोहा सुफ़ियाना अंदाज़ से अश-अश कर रहा है, वहीं दूसरा जीवात्मा के गुणधर्म को हमसे साझा करता हुआ सामने आता है. तीसरा मानो अंतरमन की सार्वभौमिकता को सटीक शब्द देता हुआ साग्रह है, तो चौथा स्थितप्रज्ञ की परिभाषा गढ़ उस अत्युच्च भावदशा को संतुलित करता हुआ-सा है. पाँचवें छंद में संयम (मूलतः धारणा, ध्यान और समाधि) के प्रभाव में अत्युच्च भावना को प्रतिपल सचेत रहने की चेतावनी है ताकि क्लिष्ट वृत्तियाँ मुलायम भावों को प्रदूषित न कर दें !
वाह वाह !
हृदय से बधाई स्वीकारिये, आदरणीया.
एक बात :
सूरज और किरण, चन्दन और सुगंध, उद्दात प्रेम का कोई भाव-धारक, ये सभी किसी अनुबन्ध को नहीं जीते. बल्कि, एक से दूसरा स्वयं-प्रस्फुटित हो चमत्कार का सुन्दर कारण हुआ करता है. ऐसे में, अनुबन्ध के स्थान पर सम्बन्ध अधिक सार्थक शब्द हो सकता है, ऐसा मेरा मानना है. वैसे तो, स्वतः-प्रस्फुटीकरण या किसी प्राकट्य का कारण पारिभाषित समस्त सम्बन्धों के भी परे जाता है. उक्त दोहे में प्रयुक्त बिम्बों को इस धरातल पर रख कर देखने की आवश्यकता है.
सादर
अभिव्यक्ति के भाव व शिल्प पर सराहना के लिए धन्यवाद आ० रमेश चौहान जी
दोहावली पर आपकी उपस्थिति के लिए सादर धन्यवाद आ० महिमा श्री जी
आदरणीय विजय मिश्र जी
दोहावली के मर्म पर आपकी सराहना के लिए ह्रदय से आभारी हूँ
सादर.
आ० संदीप पटेल जी
दोहावली पर उत्साहवर्धन करती सराहना के लिए हार्दिक धन्यवाद
भाव एवं शिल्प दोनो उत्कृष्ट दीदीजी कोटिश बधाई
क्यों अदृश्य में खोजता, मनस सत्य के पाँव
सहज दृश्य में व्याप्त जब, उसकी निश्छल छाँव .... बहुत ही सुंदर दोहावली.. ..आदरणीया प्राची जी बधाई स्वीकार करें
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