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सूरतों के साथ सीरत भी बदलनी चाहिए - लक्ष्मण धामी ‘मुसाफिर’

बाद  इसके  भी  बहस  कुछ  और  चलनी चाहिए
सूरतों   के  साथ  सीरत  भी   बदलनी    चाहिए

**

चल  पड़े  माना  सफर  में  बात  इससे कब बनी
लौटने  को   घर   हमेशा   साँझ   ढलनी  चाहिए

**

आ  ही  जायेगा  भगीरथ  फिर  यहाँ  बदलाव को
आस की  गंगा  तुम्हीं  से फिर निकलनी चाहिए

**

है   जरूरी   देश   को   विश्वास   की   संजीवनी
मन हिमालय  में सभी के वो भी फलनी चाहिए

**

ब्याह की बातें  कहो या  फिर कहो तुम देश की
हाथ से  जादा  दिलों  की  रेख  मिलनी चाहिए

**

काम  क्या  परजीविता  का जो सुखाती वृक्ष भी
नफरतों  की  बेल  सबको  ही  कुचलनी  चाहिए

**

हिंदु हो या  हो मुसलमाँ, छोड़  दो  अडि़यलपना
एकता  को  देश   की,  हर शै   बदलनी  चाहिए

**
अब ‘मुसाफिर’ की सभी से बस यही है इल्तिजा
खिड़कियाँ ताजी हवा को अब तो खुलनी चाहिए
***********
2122  2122  2122  212
( रचना-17 मई 2014 )
रचना मौलिक और अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी ‘मुसाफिर’

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Comment

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Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on June 1, 2014 at 10:27am

आदरणीय राजेश बहन ग़ज़ल की प्रशंसा और अनमोल सुझाव के लिए हार्दिक बधाई .

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on June 1, 2014 at 10:26am

आदरणीय भाई शिज्जु जी और भाई बृजेश जी ग़ज़ल की प्रशंसा के लिए हार्दिक धन्यवाद .

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on June 1, 2014 at 10:24am

आदरणीय भाई गिरिराज जी उत्साहवर्धन के लिए हार्दिक धन्यवाद .

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on June 1, 2014 at 10:23am

आदरणीय भाई कँवर करतार जी, नादिर खान जी , मीना बहन , सबिता जी, भाई जितेंद्रजी  और भाई सुरेन्द्र कुमार जी ग़ज़ल की प्रशंसा के लिए आप सभी का हार्दिक धन्यवाद .

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on June 1, 2014 at 10:21am

आदरणीय भाई सौरभ जी. प्रशंसा के लिए हार्दिक धन्यवाद . आप ने इस ग़ज़ल के सन्दर्भ में माननीय दुष्यंत जी का जो जिक्र किया सच ही किया निश्चित ही इस पर उनकी ग़ज़ल का प्रभाव है . यह मेरा अहोभाग्य है कि आप जैसे विध्वजनों से प्रशंसा मिली .आदरणीया राजेश बहन का सुझाव पहले ही नोट कर लिया था उनका सुझाव उचित है . पुनः हार्दिक आभार .  

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on June 1, 2014 at 9:54am

आदरणीय भाई श्याम नारायण जी , प्रशंसा के लिए हार्दिक धन्यवाद .


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on June 1, 2014 at 1:30am

बहुत खूब !

दुष्यंत बार-बार धमक बनाते रहे. लेकिन हम सबके धामीजी के सामने फिर शांत हो ही गये.

आदरणीया राजेश कुमारीजी के सुझाव पर अवश्य ध्यान दें श्रीमान ..

शुभ-शुभ


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on May 27, 2014 at 9:09pm

आदरणीय लक्ष्मण भाई , खूब सूरत गज़ल के लिये आपको बधाइयाँ ॥

Comment by बृजेश नीरज on May 27, 2014 at 7:34pm

अच्छी ग़ज़ल है! आपको बहुत-बहुत बधाई!

Comment by Dr Ashutosh Mishra on May 27, 2014 at 2:16pm

इस सुंदर ग़ज़ल के लिए मेरी हार्दिक बधायी स्वीकार करें सादर 

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