मौत बेटियों को बस, दाइयाँ समझती हैं
पीर के सबब को सब माइयाँ समझती हैं
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सोच आज तक भी जब, है गुलाम जैसी ही
मुल्क की अजादी क्या, बेडि़याँ समझती हैं
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दो बयाँ भले ही तुम देश की तरक्की के
हर खबर है सच कितनी सुर्खियाँ समझती हैं
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आप के बयानों में खूब है सफाई पर
बेवफा कहाँ तक हो, पत्नियाँ समझती हैं
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दोष तुम निगाहों को बेरूखी की देते हो
कान कौन भरता है बालियाँ समझती हैं
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पायलों को छमछम की आदतें जनम से ही
कब किसे रिझाना है चूडि़याँ समझती हैं
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जिश्म को बिछाया है लाल के बिलखने से
दर्द भूख का यारो रोटियाँ समझती हैं
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क्या कहें ‘मुसाफिर’ को चुप रहा सफर में गर
मौन क्यों जुबाँ है ये तल्खियाँ समझती हैं
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212 1222 212 1222
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लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'
मौलिक और अप्रकाशित
Comment
आ० लक्ष्मण धामी जी
मैं मतले में काफिया निर्धारण पर अटक गयी ..आपने काफिया 'आइयाँ' लिया है पर हमकवाफी शब्द 'इयाँ' पर हैं....
अश'आर सुन्दर हुए हैं
हार्दिक बधाई
एक अच्छी ग़ज़ल पर मेरी दाद लीजिये. आदरणीय
आपकी ग़ज़ल इस माह के तरही मुशायरे में सम्मिलित हो सकती थी. खैर..
सादर
आदरणीय लक्ष्मण जी, गज़ल का हर अश'आर उम्दा है. इस लाजवाब गज़ल के लिए बधाइयाँ................
आदरणीय लक्ष्मणजी बह्र क्या खूब निभाया है आपने बहुत बहुत बधाई आपको
//
//पायलों को छमछम की आदतें जनम से ही
कब किसे रिझाना है चूडि़याँ समझती हैं//
इस अच्छी गज़ल के लिय बधाई, आदरणीय।
आदरणीय लक्ष्मण भाई , खूब अच्छी ग़ज़ल कही है , खूब सारी बधाइयाँ ॥
क्या बात है .. दिली दाद कबूल करें | सादर
जिश्म को बिछाया है लाल के बिलखने से
दर्द भूख का यारो रोटियाँ समझती हैं............बहुत मार्मिक, बधाई आदरणीय लक्ष्मण जी
sundar ghazal likhi hai ...bahut- bahut badhaai.
पायलों को छमछम की आदतें जनम से ही
कब किसे रिझाना है चूडि़याँ समझती हैं...क्या नज़ाकत है.....बहुत बहुत बधाई...सादर.
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