बाद  इसके  भी  बहस  कुछ  और  चलनी चाहिए
 सूरतों   के  साथ  सीरत  भी   बदलनी    चाहिए
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चल  पड़े  माना  सफर  में  बात  इससे कब बनी
 लौटने  को   घर   हमेशा   साँझ   ढलनी  चाहिए
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आ  ही  जायेगा  भगीरथ  फिर  यहाँ  बदलाव को
 आस की  गंगा  तुम्हीं  से फिर निकलनी चाहिए
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है   जरूरी   देश   को   विश्वास   की   संजीवनी
 मन हिमालय  में सभी के वो भी फलनी चाहिए
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ब्याह की बातें  कहो या  फिर कहो तुम देश की
 हाथ से  जादा  दिलों  की  रेख  मिलनी चाहिए
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काम  क्या  परजीविता  का जो सुखाती वृक्ष भी
 नफरतों  की  बेल  सबको  ही  कुचलनी  चाहिए
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हिंदु हो या  हो मुसलमाँ, छोड़  दो  अडि़यलपना
 एकता  को  देश   की,  हर शै   बदलनी  चाहिए
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 अब ‘मुसाफिर’ की सभी से बस यही है इल्तिजा
 खिड़कियाँ ताजी हवा को अब तो खुलनी चाहिए
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 2122  2122  2122  212
 ( रचना-17 मई 2014 )
 रचना मौलिक और अप्रकाशित
 लक्ष्मण धामी ‘मुसाफिर’
Comment
आदरणीय राजेश बहन ग़ज़ल की प्रशंसा और अनमोल सुझाव के लिए हार्दिक बधाई .
आदरणीय भाई शिज्जु जी और भाई बृजेश जी ग़ज़ल की प्रशंसा के लिए हार्दिक धन्यवाद .
आदरणीय भाई गिरिराज जी उत्साहवर्धन के लिए हार्दिक धन्यवाद .
आदरणीय भाई कँवर करतार जी, नादिर खान जी , मीना बहन , सबिता जी, भाई जितेंद्रजी और भाई सुरेन्द्र कुमार जी ग़ज़ल की प्रशंसा के लिए आप सभी का हार्दिक धन्यवाद .
आदरणीय भाई सौरभ जी. प्रशंसा के लिए हार्दिक धन्यवाद . आप ने इस ग़ज़ल के सन्दर्भ में माननीय दुष्यंत जी का जो जिक्र किया सच ही किया निश्चित ही इस पर उनकी ग़ज़ल का प्रभाव है . यह मेरा अहोभाग्य है कि आप जैसे विध्वजनों से प्रशंसा मिली .आदरणीया राजेश बहन का सुझाव पहले ही नोट कर लिया था उनका सुझाव उचित है . पुनः हार्दिक आभार .
आदरणीय भाई श्याम नारायण जी , प्रशंसा के लिए हार्दिक धन्यवाद .
बहुत खूब !
दुष्यंत बार-बार धमक बनाते रहे. लेकिन हम सबके धामीजी के सामने फिर शांत हो ही गये.
आदरणीया राजेश कुमारीजी के सुझाव पर अवश्य ध्यान दें श्रीमान ..
शुभ-शुभ
आदरणीय लक्ष्मण भाई , खूब सूरत गज़ल के लिये आपको बधाइयाँ ॥
अच्छी ग़ज़ल है! आपको बहुत-बहुत बधाई!
इस सुंदर ग़ज़ल के लिए मेरी हार्दिक बधायी स्वीकार करें सादर
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