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कितना अनजान है आदमी-डा० विजय शंकर

हमदर्दी की क्या कहें
कौन किसी के दुःख सुनता है
दूसरे को छोड़िये. आदमी
कब अपने दुखड़े सुनता है
सुनना छोड़िये , अपने
दुःख कब समझता है आदमी ।
ये तो औरों को देख कर
कुछ जान लेता है आदमी ,
अच्छा ऐसे जीता है आदमी ?
ऐसे खाता है , ऐसे पीता है
ऐसे ऐसे हँसता है आदमी
मुझे नहीं सिखाता है आदमी
आदमी का भला करना ही
नहीं चाहता है आदमी ।
आदमी से दूरी बनाता है आदमी
आदमी आदमी के बीच तरह ,
तरह की दीवारें बनाता है आदमी
दीवारों के इस पार - उस पार
दीवारों से खुश हो लेता है आदमी ॥
अपने दुःख को कहाँ क्या
कभी समझ पाता है आदमी
खुद से कितना खोया हुआ
कितना अनजान है आदमी ||
ये तो औरों को देख कर
कुछ जान लेता है आदमी
देखिये आदमी को देख कर
कैसे हैरान हो जाता है आदमी ||

मौलिक एवं अप्रकाशित.
डा० विजय शंकर

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Comment by Dr. Vijai Shanker on July 22, 2014 at 12:15am
धन्यवाद आदरणीय डॉ o आशुतोष मिश्रा जी .
Comment by Dr. Vijai Shanker on July 22, 2014 at 12:13am
धन्यवाद आदरणीय जवाहर लाल जी।
Comment by Dr Ashutosh Mishra on July 15, 2014 at 4:47pm

आदरणीय जीतेन्द्र जी वर्तमान संदर्भो को बखूबी चित्रित करती शानदार रचना पर आपको हार्दिक बधाई सादर  

Comment by JAWAHAR LAL SINGH on July 14, 2014 at 8:27pm

आदमी का भला करना ही
नहीं चाहता है आदमी ।
आदमी से दूरी बनाता है आदमी
आदमी आदमी के बीच तरह ,
तरह की दीवारें बनाता है आदमी
दीवारों के इस पार - उस पार
दीवारों से खुश हो लेता है आदमी ॥

मिलाजुलाकर कहें तो हर मर्ज का कारण ही है आदमी...सादर!

Comment by Dr. Vijai Shanker on July 13, 2014 at 10:46am
आदरणीय जीतेन्द्र जी , अच्छा लगा आपने पढ़ा इसे ,जीवन स्वयं जटिल बना लिया है तो जीवन की बातें भी थोड़ी क्लिष्ट हो ही जाती हैं , जबकि होनी नहीं चाहिए । बधाई के लिए धन्यवाद ।
Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on July 13, 2014 at 9:29am

पूर्ण रचना सच को बयाँ करती. बाकी आपने आदरणीय विजय प्रकाश जी की प्रतिक्रिया के प्रतिउत्तर में कह ही दिया है :-))

आपको बहुत बहुत बधाई आदरणीय डा.विजय शंकर जी.  सादर!

Comment by Dr. Vijai Shanker on July 12, 2014 at 2:34pm
आदरणीय विजय प्रकाश शर्मा जी , उम्र की इस अवस्था पर यह समझ सी बनती जा रही है कि कितनें भ्रम में हैं हम और कितनें दिशाहीन हैं हम , और आदमी को सही मार्ग दिखाने वाला भी कहीं कोई नहीं हैं . ये जितने भी दिखाई देते हैं वो सब सौदागर हैं अपना अपना कारोबार कर रहें , शिक्षा की तो बात न ही की जाए उतना ही अच्छा है . हम भी खूब हैं ,ब्रह्म भी हैं और खुश भी हैं .
बधाई के लिए धन्यवाद .
Comment by Dr. Vijai Shanker on July 12, 2014 at 2:13pm
आदरणीय डॉ o गोपाल नरायन जी , प्रयास यह है कि आदमी कुछ तो सही समझने की कोशिश करे .
बधाई के लिए धन्यवाद .
Comment by Dr.Vijay Prakash Sharma on July 12, 2014 at 11:13am

आ० विजय शंकर जी,
इस रचना पर अनेक बधाईयां. आज का आदमी "अहंब्रमोस्मि " के अहं का भ्रम 

पालते हुए उसका पोषक बन गया है. आपकी रचना आज के आदमी के इस सच को मुखरित करती है.सादर.

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on July 12, 2014 at 11:00am

मान्यवर

आपने  आदमी को नए ढंग से परिभाषित किया है i बधाई i

कृपया ध्यान दे...

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