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"सखेद" - [छंद- चौपईया/जयकरी पर आधारित]

[छंद- चौपईया/जयकरी पर आधारित मापनी मुक्त रचना]

रहो सोचते तुम मत आज,
कर लो जो करना है काज।
भले दूसरों की मत मान,
मन की अपने तुम लो जान । /1/

नुक्ता-चीनी करते टोक,
नेक काम पर थोपें रोक।
यही इस ज़माने का राज़,
कर्मयोगी समझ लो आज। /2/

होता शिक्षा का व्यापार,
रहे निर्धन वर्ग लाचार।
है योजनाओं का प्रचार,
फिर भी होते अत्याचार। /3/

टी.वी., फ़िल्मों को तू देख,
भूल गीता-क़ुरआन-लेख,
पाठ सिखाते सारे वेद,
चूक गये तुम यही सखेद। /4/


हुये बिगड़ों संग सत्कार,
गुरूजन दें सिर्फ फटकार,
दे सत्संग की सीख कौन,
माँ-बाप की मिले दुत्कार। /5/

करे क्यों ख़ुदकुशी से प्यार,
प्यार ख़ुद क्यों न बांटे यार,
होता क्या बिन बांटे प्राप्त,
करे .... हीनता .... बंटाधार। /6/

हैं जीवन के दिन दो-चार,
देखो प्रतिभा अपनी यार,
है हर किसी में इसका धाम,
करो निखारने पर विचार। /7/

मिलती हमें भक्ति से शक्ति,
या फिर जगे शक्ति से भक्ति,
दें माँ दुर्गा आशीर्वाद,
मनाता नवरात्रि जब व्यक्ति। /8/

अद्भुत लीला का त्योहार,
दुर्गा ... पूजा ... बारम्बार,
हुआ जगमग देखो जहान,
शक्ति-भक्ति का है आधार। /9/


[मौलिक व अप्रकाशित]

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Comment

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Comment by Sheikh Shahzad Usmani on April 8, 2017 at 2:53am
मेरी इस रचना पर समय देकर मार्गदर्शित करने व हौसला अफ़ज़ाई हेतु बहुत बहुत शुक्रिया मोहतरम जनाब लक्ष्मण रामानुज लडीवाला जी।
Comment by Sheikh Shahzad Usmani on April 8, 2017 at 2:47am
मेरी इस रचना पर समय देकर मार्गदर्शित क करने व हौसला अफ़ज़ाई हेतु बहुत बहुत शुक्रिया मोहतरम जनाब लक्ष्मण रामानुज लडीवाला जी।
Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on October 15, 2015 at 5:44pm

जयकरी छंद पर सुंदर प्रयास के लिए हार्दिक  बधाई श्री शेख शहजाद भाई | यह अवश्य ही की कई  जगह लय भंग है | अतः थोड़ा समय और दे - जैसे  देखे -

करे क्यों ख़ुदकुशी से प्यार,  - ख़ुदकुशी से करे क्यों प्यार, 
प्यार ख़ुद क्यों न बांटे यार,   - प्यार स्वयं ही  बाँटे यार  |
होता क्या बिन बांटे प्राप्त,     - मिलता क्या बिन बाँटे प्राप्त 
करे .... हीनता .... बंटाधार।   - करे  हीनता  बन्टाधार  ||

Comment by Sheikh Shahzad Usmani on October 15, 2015 at 11:08am
बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय Samar Kabeer जी , परिमार्जन कर दिया है, शेष आगे के मार्गदर्शन अनुसार बाद में कर दूँगा। ओबीओ में नया होने के कारण समय लगता है। सादर धन्यवाद।
Comment by Samar kabeer on October 14, 2015 at 11:19pm
जनाब उस्मानी जी,आदाब,सुन्दर प्रस्तुति हेतु बधाई स्वीकार करें ,आली जनाब गोपाल नारायण जी की बात पर ध्यान दीजियेगा ।
Comment by Sheikh Shahzad Usmani on October 14, 2015 at 10:37pm
असीम प्रोत्साहन प्रदान करने हेतु बहुत बहुत हार्दिक धन्यवाद आदरणीया कान्ता राय Kanta Roy जी।
Comment by Sheikh Shahzad Usmani on October 14, 2015 at 10:36pm
परिमार्जन सुझाव दे कर कमियों को समझाने के लिए तहे दिल बहुत बहुत धन्यवाद आदरणीय डॉ़
गोपाल नारायन श्रीवास्तव जी। अभी क ख ग ही सीख रहा हूँ, ग़ुस्ताख़ी माफ़ आदरणीय जी।
Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on October 14, 2015 at 9:07pm

आ० उस्मानी जी आपने मात्रिक विन्यास निभाने की कोशिश की है किन्तु प्रवाह अधिकतर बाधित है ;'शिक्षा का कराते व्यापार' में तो मात्रा भी बढ़ गयी है . मैं  आपकी कविता की कुछ पंक्तियो मे जयकारी की लय एवं प्रवाह लाने का प्रयास करता हूँ .

रहो सोचते तुम मत आज

करना है जो कर लो काज

बात दूसरो  की मत मान

बस अपने ही मन की जान ---हर गंगा

Comment by kanta roy on October 14, 2015 at 8:13pm
टी.वी., फ़िल्मों को तू देख,
भूल गीता-क़ुरआन-लेख,
पाठ सिखाते सारे वेद,
चूक गये तुम यही सखेद..... वाह ! बहुत खूब छंद बने है आपके , सब एक से बढकर एक । बधाई आपको आदरणीय शेख शहज़ाद जी ।

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