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अधूरे हर्फ़ :..........

अधूरे हर्फ़ :..........

हंसी आती है
अपने ख्यालों पर
मेरे तसव्वुर में
तुम जब भी आती हो
इक अधूरी ग़ज़ल की तरह आती हो
नज़र से नज़र मिलती ही
एक अजीब सी सिहरन होती है
तुम किताब के रूठे हर्फों की तरह
किसी कोने में सिमटी रहती हो
मैं अपने अधूरे हर्फों को
इक मुकम्मल शक्ल देने की कोशिश में
तमाम शब चरागों में झिलमिलाते
तुम्हारे अक्स के साथ
गुज़ार देता हूँ
सहर होने के साथ
हम अधूरे लफ़्ज़ों के तरह
मुकम्मल होने के लिए
अपनी कांपती उंगलियां
एक दूसरे के हाथों में डालते हैं
लबों में ज़ुम्बिश होती है
फिर हम सर्द की धुंध में
ग़ुम होती सड़क की तरह
अपने अपने अधूरेपन के साथ
ग़ुम होने लगते हैं
अधूरे हर्फ़
नमी की चादर लपेटे
ग़ज़ल को
मुकम्मल करने की हसरत लिए
पलकों की दहलीज़ पर
बैठ जाते हैं
और ख़्वाबों के आरिज़ो पर
इक खारे पानी की
लकीर छोड़ जाते हैं

सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित

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Comment by Sushil Sarna on December 8, 2015 at 12:34pm

आदरणीय  laxman dhami   जी प्रस्तुति  पर आपकी आत्मीय प्रशंसा का हार्दिक आभार। 

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on December 8, 2015 at 11:26am

आ0 भाई सुशील जी इस सुंदर रचना के लिए हार्दिक बधाई ।

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