फ़रेबी रात …
छोडिये साहिब !
ये तो बेवक्त
बेवजह ही
ज़मीं खराब करते हैं
आप अपनी अंगुली के पोर
इनसे क्यूं खराब करते हैं
ज़माने के दर्द हैं
क्योँ अपनी रातें
हमारी तन्हाई पे खराब करते हैं
ज़माने की निगाह में
ये नमकीन पानी के अलावा
कुछ भी नहीं
रात की कहानी
ये भोर में गुनगुनायेंगे
आंसू हैं,निर्बल हैं
कुछ दूर तक
आरिजों पे फिसलकर
खुद-ब-खुद ही सूख जायेंगे
हमारे दर्द हैं
हमें ही उठा लेने दीजिये
आप आये हैं
तो महफ़िल में
तबले की थाप पे
घुंघरू की आवाज़ का
मज़ा लीजिये
साजिंदों के साज पे
तड़पते नग्मों का
साथ दीजिये
शुक्र है इन घुंघरुओं का
जो अपनी झंकार में
पाँव के दर्द को
पी जाते हैं
इनकी आवाज के भरोसे
हम कुछ लम्हे
और जी जाते हैं
अपने कद्रदानों की
हर वाह पे हम
जाँ निसार करते हैं
जानते हैं
ये शब् भर की महफ़िल का फ़रेब है
फिर भी न जाने क्यूँ
ये कम्बख्त घुंघरू
इक नई फ़रेबी रात का
इंतज़ार करते हैं
सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
आदरणीय मिथिलेश वामनकर साहिब प्रस्तुति में निहित भावों को अपने स्नेह से लबरेज़ करने के लिए बन्दे का तहे दिल से शुक्रिया स्वीकार करें सर।
आदरणीय jaan' gorakhpuri साहिब प्रस्तुति में निहित भावों को अपने स्नेह से लबरेज़ करने के लिए बन्दे का तहे दिल से शुक्रिया स्वीकार करें सर।
आदरणीय सुशील सर, बढ़िया प्रस्तुति. हार्दिक बधाई
आदरणीय समर कबीर साहिब प्रस्तुति में निहित भावों को अपने स्नेह से लबरेज़ करने के लिए बन्दे का तहे दिल से शुक्रिया स्वीकार करें सर।
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