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सर पर छत थी वो गयी , भीत भीत चहुँ ओर

रक्ष रक्ष मैं रेंकता , चोर मचाये शोर

 

सबकी चिंता है अलग, सब में थोड़ा फर्क

सब कहते वो पाप है, वो जायेगा नर्क  

 

स्वार्थ सदा रहता छिपा, सब रिश्तों के बीच

लेकिन वह जो बोल दे, कहलाता है नीच

 

सबकी अपनी व्यस्तता, सब के अपने राग

सर्व समाहित सोच से , तू भी थोड़ा भाग

 

सब तक सीढ़ी है बना , पायेगा  अनुराग  

पत्थर को ठोकर मिली , रे मानुष तू जाग

***************************************

मौलिक एवँ अप्रकाशित

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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on July 12, 2016 at 9:27am

आदरणीय अशोक  भाई , सराहना के लिये आपका हार्दिक आभार ।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on July 12, 2016 at 9:27am

आदरणीय तेजवीर भाई , हौसला अफज़ाई का बहुत शुक्रिया ।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on July 12, 2016 at 9:26am

आदरणीय समर भाई , उत्साह वर्धन के लिये आपका हार्दिक आभार ।

Comment by Ashok Kumar Raktale on July 11, 2016 at 1:57pm

आदरणीय गिरिराज भंडारी साहब सादर, अच्छे दोहे रचे हैं. बहुत-बहुत बधाई. सादर.

Comment by TEJ VEER SINGH on July 10, 2016 at 9:42pm
हार्दिक बधाई आदरणीय गिरिराज भंडारी जी ! बहुत शानदार रचनायें!
Comment by Samar kabeer on July 10, 2016 at 12:42pm
जनाब गिरिराज भंडारी जी आदाब,बहुत बढ़िया दोहे रचे आपने,दिल से बधाई स्वीकार करें ।

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"हार्दिक आभार सर।"
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