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तरही गजल/सतविन्द्र कुमार राणा

बह्र:22 22 22 22
चाहत यार बढाने निकले
दिलको आज कमाने निकले।

जिनको समझ रहे थे अपना
आज वही बेगाने निकले।

घर छोड़ा अपनों को छोड़ा
बन कर बस अनजाने निकले।

तनहा राहें अपनी साथी
हमसे दूर जमाने निकले।

लब पर ले मुस्कान बताओ
कैसा दर्द छुपाने निकले।


जिनको समझा सबने पागल
देखो यार सयाने निकले।

अपना आपा ठीक नहीं है
गैरों को समझाने निकले।

दर्द नया यूँ ही लगता है
लेकिन जख्म पुराने निकले।

राणा बात भुलाकर गम की
सबको आज हँसाने निकले।

मौलिक एवं अप्रकाशित

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Comment by सतविन्द्र कुमार राणा on December 29, 2016 at 8:00am
आदरणीय महेंद्र कुमार जी,प्रोत्साहन के लिए तहे दिल शुक्रिया!
Comment by Mahendra Kumar on December 18, 2016 at 10:13am

बहुत खूब आदरणीय सतविन्द्र जी। इस ग़ज़ल के लिए आपको ढेरों बधाई। सादर।

Comment by सतविन्द्र कुमार राणा on December 16, 2016 at 8:39pm
आदरणीय समर कबीर जी सादर नमन,आप ने दुरुस्त फ़रमाया!मार्गदर्शन के लिए बहुत बहुत आभार
Comment by सतविन्द्र कुमार राणा on December 16, 2016 at 8:38pm
आडआदरणीय सूबे सिंह जी आभार।
Comment by Samar kabeer on December 16, 2016 at 5:36pm
जनाब सतविन्दर कुमार 'राणा'जी आदाब,अच्छी ग़ज़ल हुई है,शैर दर शैर दाद के साथ मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं ।
दूसरे शैर में तक़ाबुल-ए-रदीफ़ का दोष है,मिसरा यूँ कर सकते हैं:-
"जिनको समझ रहे थे अपना"
Comment by सूबे सिंह सुजान on December 16, 2016 at 7:01am
वाह वाह ।खूब लिखा

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