सितारे-चाँद, अच्छे दिन, ऋणों की बात जपनी है
सजा कर बेचना है स्वप्न ये पहचान छपनी है
बनाते हम बड़ी बातें तथा जुमले खपाते हैं
सियासत तुम समझते हो मगर दूकान अपनी है
जिन्हें तो चिलचिलाती धूप का अनुभव नहीं होना
कभी हाथों जिन्हें सामान कोई इक नहीं ढोना
जिन्हें ज़ेवर लदी उड़ती-मचलती औरतों का साथ
वही मज़दूर-मेहनत औ’ ग़मों का रो रहे रोना
सियासत की, धमक से औ’ डराया ख़ूब अफ़सर भी
लिखा है पत्रिका में इंकिलाबी लेख जम कर भी
उठा कर मुट्ठियाँ अकसर भरी है चीख नारों की
मगर है ध्यान अर्जन पर.. न छोड़ा हक़ सुई भर भी
*****
सौरभ
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
आद0 सौरभ पांडेय जी सादर अभिवादन। वर्तमान हालात, राजनेताओं के चुनावी हथकंडों और उन्हीं के साथ बेबसी में जीने को मजबूर जनमानस को आपने बहुत बेहतरीन ढंग से अपने मुक्तक में जगह दिया। बहुत दिनों बाद आपकी कोई रचना पढ़ने को मिली। इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार कीजिये
तीनों मुक्तक बहुत सुंदर लगे आदरणीय।।साधुवाद
जनाब सौरभ पाण्डेय साहिब आदाब,आपके मुक्तक पढ़े,और ख़ूब आनन्द लिया,भाई कितने सलीक़े से आपने उस सच्चाई को बयान कर दिया जिसे लोग ज़बान पर लाते हुए भी दस बार सोचते हैं,और ख़ामोश रह जाते हैं ।
तीनों मुक्तक लाजवाब हुए हैं,इनकी जितनी तारीफ़ की जाए कम होगी,मेरी तरफ़ से इस शानदार प्रस्तुति पर दिल से बधाई स्वीकार करें ।
हाँ, एक बात याद दिलाना चाहूँगा कि ओबीओ से दूर रहकर और अपनी मसरूफ़ियत के चलते आप ओबीओ के नियम भी भूलते जा रहे हैं,शायद इसी लिए रचना के अंत में मौलिक व अप्रकाशित लिखना भूल गए :-))))
सितारे-चाँद, अच्छे दिन, ऋणों की बात जपनी है
सजा कर बेचना है स्वप्न ये पहचान छपनी है
बनाते हम बड़ी बातें तथा जुमले खपाते हैं
सियासत तुम समझते हो मगर दूकान अपनी है .... वाह आदरणीय यथार्थ को चरितार्थ करता बेहतरीन मुक्तक।
जिन्हें तो चिलचिलाती धूप का अनुभव नहीं होना
कभी हाथों जिन्हें सामान कोई इक नहीं ढोना
जिन्हें ज़ेवर लदी उड़ती-मचलती औरतों का साथ
वही मज़दूर-मेहनत औ’ ग़मों का रो रहे रोना .... बिलकुल सही बात सर .... कितनी विडंबना है कि फुटपाथ की ज़िंदगी को जो हेय दृष्टि से देखते हैं आज वही फुटपाथ उनकी कुर्सी का आधार बन गया है .... सिर्फ उनकी ही बातें होती हैं , उनकी ज़ुबानी उनके दर्द की कहानी रोज़ दोहराई जाती है ... कुर्सी के बाद नज़र ज़मीन पर नहीं आसमान पर उठाई जाती है। .... बेहतरीन और भावपूर्ण सर।
सियासत की, धमक से औ’ डराया ख़ूब अफ़सर भी
लिखा है पत्रिका में इंकिलाबी लेख जम कर भी
उठा कर मुट्ठियाँ अकसर भरी है चीख नारों की
मगर है ध्यान अर्जन पर.. न छोड़ा हक़ सुई भर भी .... बहुत उम्दा .... खाते भी हैं और डकार भी नहीं लेते .... वोट से पहले ये अपने परिधान भी जन जन में बाँट कर महानता का चोला पहन लेते हैं वोट के बाद अपने परिधान का एक एक रेशा जिस्म से उत्तर लेते हैं .... हर वादे की आड़ में ये अपने हित साध लेते हैं। ...
सर तीनों मुक्तक वर्तमान व्यथा का आईना हैं। इस अनुपम , अप्रतिम प्रस्तुति के लिए दिल से बधाई आदरणीय सौरभ सर।
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