1222 1222 1222 1222
सिरा कोई पकड़ कर हम उन्हें फिर से तलाशेंगे
इन्हीं चुपचाप गलियों में जिये रिश्ते तलाशेंगे
अँधेरों की कुटिल साज़िश अगर अबभी न समझें तो
उजालों के लिए मिट्टी के फिर दीये तलाशेंगे
कभी उम्मीद से भारी नयन सपनों सजे तर थे
किसे मालूम था ये ही नयन सिक्के तलाशेंगे !
दिखे है दरमियाँ अपने बहुत.. पर खो गया है जो
उसे परदे, भरी चादर, रुँधे तकिये तलाशेंगे
हृदय में भाव था उसने निछावर कर दिया खुद को
मगर सोचो कि उसके नाम अब कितने तलाशेंगे ?
चिनकती धूप से बचते रहे थे आजतक, वो ही-
पता है कल कभी जुगनू, कभी तारे तलाशेंगे
मुबारक़ हो उन्हें दिलकश पतंगों की उड़ानें पर
ज़मीं पर घूमते ’सौरभ’ बचे कुनबे तलाशेंगे
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सौरभ
Comment
आ. भाई सौरभ जी, सादर अभिवादन । बेहतरीन प्ररणादायी गजल के लिए कोटि कोटि बधाई।
अँधेरों की कुटिल साज़िश अगर अबभी न समझें तो
उजालों के लिए मिट्टी के फिर दीये तलाशेंगे
यह तो सदा मन में बसा रहेगा...
आदरणीय सुरेन्द्र नाथ सिंह ’कुशक्षत्रप’ जी, इस प्रस्तुति पर आपकी दृष्टि पड़ी, आपकी उदार टिप्पणी से यह ग़ज़ल समृद्ध हुई, यह मुझ जैसे रचनाकार के लिए अत्यंत् उत्साहवर्द्धक है. आपका हार्दिक धन्यवाद.
आद0 सौरभ पांडेय जी सादर प्रणाम। बहुत दिन बाद आपकी कोई ग़ज़ल पढ़ रहा हूँ। पर बेहतरीन अशआर कहे हैं आपने। हर शेर पर मेरी दाद कुबूल करें।
दिखे है दरमियाँ अपने बहुत.. पर खो गया है जो
उसे परदे, भरी चादर, रुँधे तकिये तलाशेंगे
यह शेर दिल को छू गया,, वाह वाह वाह
मकता भी गज़ब कही आपने,, बहुत बहुत बधाई। सादर
//डेढ़ मिसरों के हवाले से आपकी प्रशंसा सुखकर है.//
भाई जी,शैर तो दो मिसरों का ही कापी किया था,पर न जाने क्यों डेढ़ मिसरा ही पेस्ट हुआ:-)))
आदरणीय सुशील सरना जी, आपने उस शेर को सम्मान दिया है जो पारस्परिक रिश्तों की महीनी को उजागर करता हुआ है. ग़ज़ल पर आपकी सकारात्मक टिप्पणी के लिए सादर धन्यवाद.
आदरणीय समर साहब, ग़ज़ल को लेकर डेढ़ मिसरों के हवाले से आपकी प्रशंसा सुखकर है. वैसे यह आपकी सदाशयता ही है कि आपने इस प्रस्तुति को मान दिया है.
हार्दिक धन्यवाद
भाई आसिफ़ ज़ैदी जी, हार्दिक धन्यवाद
दिखे है दरमियाँ अपने बहुत.. पर खो गया है जो
उसे परदे, भरी चादर, रुँधे तकिये तलाशेंगे
वाह परम् आदरणीय सौरभ जी वाह खूबसूरत अहसासों से लबरेज़ अशआर .... नमन आपकी लेखनी को और इस बेहतरीन ग़ज़ल के लिए दिल की असीम गहराईयों से हार्दिक बधाई। दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएं सर।
जनाब सौरभ पाण्डेय जी आदाब,बहुत समय बाद ओबीओ पर आपकी ग़ज़ल पढ़ने का मौक़ा मिला है ।
बहुत सुंदर और सटीक ग़ज़ल हुई है,हर शैर आपके ख़ास लहजे की निशान दही करता हुआ है,
'अगर अबभी न समझें तो
उजालों के लिए मिट्टी के फिर दीये तलाशेंगे'
ये शैर हासिल-ए-ग़ज़ल कहा जा सकता है,दाद के साथ मुबारकबाद पेश करता हूँ ।
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