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ग़ज़ल - पत्थरों से रही शिकायत कब ? // --सौरभ

२१२२ १२१२ २२/११२

 
अब दिखेगी भला कभी हममें..
आपसी वो हया जो थी हममें ?

 

हममें जो ढूँढते रहे थे कमी
कह रहे, ’ढूँढ मत कमी हममें’ !

 

साथिया, हम हुए सदा ही निसार
पर मुहब्बत तुम्हें दिखी हममें ?

 

पूछते हो अभी पता हमसे
क्या दिखा बेपता कभी हममें ?

 

पत्थरों से रही शिकायत कब ?
डर हथेली ही भर रही हममें !

 

चीख भरने लगे कलंदर ही..
मत कहो, है बराबरी हममें !

 

नूर ’सौरभ’ खुदा का तुम ही गुनो
जो उगाता है ज़िन्दग़ी हममें !
****
सौरभ

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Comment

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Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on January 22, 2020 at 6:15pm

आदरणीय अग्रज को सादर प्रणाम 

एक बहुत मारक गजल से मंच को जाग्रत करने के लिए बहुत साधुवाद 

अब दिखेगी भला कभी हममें..
आपसी वो हया जो थी हममें ?...................जनता भी अब बोल रही है, उनको बस यह खलता है

                                                           तुष्टीकरण विष-फसल उगा कर जिनका धंधा चलता है

 

हममें जो ढूँढते रहे थे कमी
कह रहे, ’ढूँढ मत कमी हममें’ !...................आईने पर पत्थरबाजी निश्चित ही हो जानी थी

                                                             खुद का चहरा देख के उनको क्योंकि शर्म तो आनी थी

 

पत्थरों से रही शिकायत कब ?
डर हथेली ही भर रही हममें !................आहा……….क्या बात है………हथेली की रेखाओं पर पत्थर की खरोच

                                                                                                     किस्मत क्यूँ ना, देती धोका

  

बहुत बधाई 

Comment by Nilesh Shevgaonkar on January 16, 2020 at 9:00pm

आ. सौरभ सर.
 

लम्बे समय बाद आपको पढ़ना सुखद है. 
ऐसा लगता है मानों ग़ज़ल कच्ची ही उतार ली आपने. अभी पकने की गुंजाइश बाकी है.
.
हममें जो ढूँढते रहे थे कमी
कह रहे, ’ढूँढ मत कमी हममें’ !.. ऊला में "थे" भूत काल है और सानी में "रहे" वर्तमान जो एक प्रकार का शुतुरगुर्बा है.
.

पूछते हो अभी पता हमसे
क्या दिखा बेपता कभी हममें ?  
  इस शेर में आपके भाव जो भी रहे हों, वो पाठकों तक पहुँच नहीं रहे हैं. आप जिस बेपता तक ले जाना चाह रहे हैं उस भाव को ऊला हल्का कर रहा है.  
.
पत्थरों से रही शिकायत कब ?
डर हथेली ही भर रही हममें !.. पत्थर के डर का हथेली से कोई शेरी सम्बन्ध नहीं है.. वैसे भी पत्थर का सम्बन्ध हाथ से अधिक है, हथेली से कम.  
.
चीख भरने लगे कलंदर ही..
मत कहो, है बराबरी हममें !.. चीखा जाता है और आह भरी जाती है.. अत: चीख भरने .जुमला त्रुटिपूर्ण लगता है .
साथ ही कई जगह "ही" सिर्फ भर्ती के लिए प्रयुक्त लगता है ..
आप ग़ज़ल में मेरे अध्यापक रहे हैं,  आप से खिन बेहतर की अपेक्षा है.
सादर 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on January 7, 2020 at 6:12am

आदरणीय समर साहब प्रस्तुति पर आये यही विशेष प्रतीत हुआ है. इस हेतु कृतज्ञ हूँ. सादर आभार. 

जहाँ तक आपके प्रश्नों का संबंध है, तो, आदरणीय, काश आपने पंक्तियों की बुनावट पर तनिक और समय दिया होता. आप इतने सक्षम अवश्य हैं कि कथित अशआर की पंक्तियों के दरमियाँ रब्त और व्याकरणीय विन्यास समझ लें. यदि समय हो तो पुुुन: ध्यान दीजिएगा. वैसे, आपकी व्यस्तता और आपके स्वास्थ्य से परिचित हूँ. दोनों का प्रभाव परिलक्षित होता रहता है. 

यही हाल अपना है. अति व्यस्तता तथा स्वास्थ्य की कलाएँ दोनों से प्रभावित हो जाता हूँ. किंतु, न होते भी प्रस्तुत ग़ज़ल को पूरा कर पाया, इसकी आश्वस्ति है.

सादर शुभकामनाएँ ..

Comment by Samar kabeer on January 3, 2020 at 3:26pm

जनाब सौरभ पाण्डेय जी आदाब,ग़ज़ल का अच्छा प्रयास हुआ है,बधाई स्वीकार करें ।

'पूछते हो अभी पता हमसे 
क्या दिखा बेपता कभी हममें'

इस शैर का भाव मुझे स्पष्ट नहीं लगा ।

'पत्थरों से रही शिकायत कब ? 
डर हथेली ही भर रही हममें'

इस शैर के दोनों मिसरों में मुझे रब्त नहीं लगा,और सानी का व्याकरण भी समझने में उलझ रहा हूँ,"डर" शब्द तो पुल्लिंग है न?


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on January 3, 2020 at 2:40pm

आपका हार्दिक धन्यवाद, आदरणीय आशीष जी.

वैसे ऐसा क्या शानदार लगा है ? 

शुभ-शुभ

Comment by आशीष यादव on January 2, 2020 at 10:01pm

वाह सर, हर एक शेर शानदार है।


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on January 2, 2020 at 12:52am

आपका हार्दिक धन्यवाद, आदरणीय लक्ष्मण धामी मुसाफिर जी. 

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on December 26, 2019 at 5:39pm

आ. भाई सौरभ जी, सादर अभिवादन । बेहतरीन गजल हुई है । हार्दिक बधाई ।

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