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ग़ज़ल -दौर वह यारो गया और उसके दीवाने गए

बह्र- 2122  2122  2122  212

मीडिया की फ़ौज लेकर रह्म कब खाने गए
झोपड़ी में सिर्फ़ वे दिल अपने बहलाने गए

रेडियो से ही हुआ करती थी सुब्ह-ओ-शाम जब
दौर वह यारो गया और उसके दीवाने गए

नीम पीपल छाँछ लस्सी बाजरे की रोटियाँ
ज़िन्दगी से गाँव की ये सारे अफ़साने गए

जोड़ते थे जो दिलों को अपनी माटी से यहाँ
फ़ाग चैता और कजरी के वे सब गाने गए

पूछने पर लाल के माँ ने कहा पापा तेरे
ओढ़कर प्यारा तिरंगा चाँद को लाने गए

ख़ुद ही काले हो गए वो बात और व्यवहार से
घुस के कालिख में उसे जो साफ़ करवाने गए

झेलकर तफ़्तीश की सब दिक़्क़तें यूँ बारहा
सोचते मज़लूम हैं आखिर वे क्यों थाने गए

ख़ुद-ग़रज़ हैं लोग कितने देखिये यह बानगी
काटकर सब पेड़ उसकी छाँव सुस्ताने गए

भूक क्या इफ़्लास क्या इनसे उन्हें मतलब नहीं
रहनुमा मुफ़लिस के दर बस फ़ोटो खिचवाने गए

(मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment by अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी on July 30, 2020 at 10:59pm

जनाब सुरेन्द्र नाथ सिंह 'कुशक्षत्रप' जी आदाब, शानदार ग़ज़ल हुई है दाद के साथ मुबारकबाद पेश करता हूँ। सादर।

Comment by Dimple Sharma on July 30, 2020 at 4:50pm

आदरणीय सुरेन्द्र नाथ सिंह'कुशक्षत्रप'जी नमस्ते, वाह बहुत ख़ूब ग़ज़ल हुई है आदरणीय बधाई स्वीकार करें,8 वाँ शेर बहुत ज्यादा पसंद आया आदरणीय इस शेर पर विशेष दाद ।

Comment by रवि भसीन 'शाहिद' on July 30, 2020 at 3:03pm

आदरणीय सुरेन्द्र नाथ सिंह साहिब, नमस्कार!

गाँव की महक से लबरेज़, देशभक्ती के रंग में रंगी हुई और वर्तमान की समस्यायों को उजागर करती इस सुंदर ग़ज़ल पर बधाई स्वीकार करें। शे'र नंबर 3, 4 और 5 पर आपको विशेष दाद पेश करता हूँ।

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