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ग़ज़ल (वो नज़र जो क़यामत की उठने लगी)

फ़ाइलुन -फ़ाइलुन - फ़ाइलुन -फ़ाइलुन
2 1 2 - 2 1 2 - 2 1 2 - 2 1 2


वो नज़र जो क़यामत की उठने लगी 

रोज़ मुझपे क़हर बनके गिरने लगी

रोज़ उठने लगी लगी देखो काली घटा
तर-बतर ये ज़मीं रोज़ रहने लगी

जबसे तकिया उन्होंने किया हाथ पर
हमको ख़ुद से महब्बत सी रहने लगी

एक ख़ुशबू जिगर में गई है उतर
साँस लेता हूँ जब भी महकने लगी

उनकी यादों का जब से चला दौर ये
पिछली हर ज़ह्न से याद मिटने लगी

वो नज़र से पिला देते हैं अब मुझे
मय-कशी की वो लत साक़ी छुटने लगी

अब फ़ज़ाओं में चर्चा  यही आम है
सुब्ह से ही ये क्यूँ शाम सजने लगी

दिल पे आने लगीं दिलनशीं आहटें

अब ख़ुशी ग़म के दर पे ठिटकने लगी

लौट आए वो दिन फिर से देखो 'अमीर' 

उम्र अपनी लड़कपन सी दिखने लगी

"मौलिक व अप्रकाशित"

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Comment

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Comment by Samar kabeer on September 12, 2020 at 6:07pm

//मेरे और ओ बी ओ के सभी शाइरी के तालिब-इल्मों के उस्ताद जनाब समर कबीर साहिब ही हैं//

भाई, मैं कोई उस्ताद नहीं हूँ, मह्ज़ ओबीओ का एक ख़ादिम हूँ, एक बात हमेशा ध्यान में रखें कि ओबीओ पर उस्ताद शागिर्द की कोई परिपाटी है ही नहीं,यहाँ सभी सदस्यों को अपनी बात मर्यादा के दाइरे में कहने का पूरा अधिकार है,यहाँ छोटे बड़े का कोई भेद भाव नहीं है,इसलिए आप सभी से विनम्र निवेदन है कि मुझे उस्ताद कहकर संबोधित न किया करें ।

 

Comment by अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी on September 11, 2020 at 11:19pm

आदरणीय बसंत कुमार शर्मा जी आदाब, ग़ज़ल पर आपकी आमद और सुख़न नवाज़ी का तहे-दिल से शुक्रिया।  सादर।

Comment by बसंत कुमार शर्मा on September 11, 2020 at 6:51pm

आदरणीय अमीरुद्दीन 'अमीर' जी आदाब 

अच्छी गजल के लिए बधाई , सभी की प्रतिक्रियाएँ पढ़कर कुछ न कुछ ज्ञान अवश्य हमने प्राप्त किया.

Comment by अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी on September 11, 2020 at 5:55pm

आदरणीय जनाब आशीष यादव जी आदाब,

आपसे निवेदन है कि मुझे उस्ताद कहकर सम्बोधित न किया करें, मेरे और ओ बी ओ के सभी शाइरी के तालिब-इल्मों के उस्ताद जनाब समर कबीर साहिब ही हैं वो उस महान पेड़ के समान हैं जिसके फल और फूल सदियों तक लोगों को अपनी खु़शबू और मिठास से तृप्त करते रहते हैं और वो सुगंधित और मीठे फूल और फल यहाँ सभी सीखने वाले हैं। इस चर्चा में मैंने उस्ताद मुहतरम की बात को तस्लीम किया है और मुझे उस का फ़ायदा मिला है इसलिए बधाई के पात्र समर कबीर साहिब हैं मेरी तरफ़ से भी उनको बधाई ज्ञापित है। फिर भी आपने मुझे बधाई देकर जो उदारता दिखाई है उसके लिए मैं आपका आभारी हूँ। 

उस्ताद मुहतरम समर कबीर साहिब के साथ हर एक चर्चा से बहुत कुछ सीखने को मिलता है इस चर्चा से भी ग़ज़ल सीखने वाले मेरे जैसे तालिब-इल्मों को बहुत-कुछ सीखने को मिला है इसके लिए हम सभी तालिबे इल्म उस्ताद मुहतरम जनाब समर कबीर साहिब के शुक्रगुजा़र हैं। सादर। 

Comment by आशीष यादव on September 10, 2020 at 11:12pm

गजल की शिल्प पर तो उस्ताद साहेबान बखूबी चर्चा कर दिये हैं। बहुत कुछ सीखने को मिल रहा है। 

बहरहाल उस्ताद अमीरुद्दीन अमीर साहब को बहुत बहुत बधाई। 

Comment by अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी on September 9, 2020 at 10:00pm

मुहतरम जनाब समर कबीर साहिब आपकी ज़र्रा-नवाज़ी का बहुत शुक्रगुजा़र हूँ जो मुझ अहक़र को आपने इतनी तवज्जो दी फ़ोन पर भी इस बारे में आपसे काफ़ी चर्चा हुई है। जैसा मेरे कोट किए अश'आ़र में आपने क़ाफ़िया और हर्फ़-ए-रवी के बारे में बताया है :

//कहते हो न देंगे हम दिल अगर पड़ा पाया 

  दिल कहाँ कि तुम कीजै हमने मुद्दआ पाया'

इस मतले में अलिफ़ यानी आ स्वर के क़वाफ़ी हैं,'पड़ा' में अलिफ़ क़ाफ़िया है और इसका हर्फ़-ए-रवी हुआ 'ज़बर' इसी तरह 'मुद्दआ' में अलिफ़ क़ाफ़िया और हर्फ़-ए-रवी ज़बर ।

 'देख तो दिल कि जाँ से उठता है 

ये धुआँ सा कब कहाँ से उठता है'

मीर के इस मतले में 'नून ग़ुन्ना' क़ाफ़िया है और अलिफ़ इसका हर्फ़-ए-रवी । 

'न छाँव कहीं न कोई शजर

बहुत है कठिन वफ़ा की डगर'

इस मतले में 'र' क़ाफ़िया है और हर्फ़-ए-रवी ज़बर।//

मैं इसे तस्लीम करता हूँ और इस बिना पर अपनी ग़ज़ल के मतले 

वो नज़र जो क़यामत की उठने लगी 

रोज़ ही अब क़हर दिल पे ढाने लगी   में नून यानि न को क़ाफ़िया और ये यानि ए की मात्रा को हर्फ़-ए-रवी तस्लीम करता हूँ।  सादर।

Comment by Samar kabeer on September 9, 2020 at 8:53pm

'कहते हो न देंगे हम दिल अगर पड़ा पाया 

दिल कहाँ कि तुम कीजै हमने मुद्द पाया'

इस मतले में अलिफ़ यानी आ स्वर के क़वाफ़ी हैं,'पड़ा' में अलिफ़ क़ाफ़िया है और इसका हर्फ़-ए-रवी  हुआ 'ज़बर' इसी तरह 'मुद्दआ' में अलिफ़ क़ाफ़िया और हर्फ़-ए-रवी ज़बर ।

 

'देख तो दिल कि जाँ से उठता है 

ये धुआँ सा कब कहाँ से उठता है'

मीर के इस मतले में 'नून ग़ुन्ना' क़ाफ़िया है और अलिफ़ इसका हर्फ़-ए-रवी । 

'न छाँव कहीं न को शजर

बहुत है कठिन वफ़ा की डगर'

इस मतले में 'र' क़ाफ़िया है और हर्फ़-ए-रवी ज़बर ।

इससे ज़ियादा समझाना मेरे बस से बाहर है ।

Comment by अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी on September 9, 2020 at 8:38pm

मुहतरम जनाब समर कबीर साहिब आदाब, मेरे ख़याल से क़ाफ़िया में ही हर्फ़-ए-रवी पिन्हाँ रहता है बल्कि क़ाफ़िया का आख़िरी हर्फ़ ही हर्फ़-ए-रवी होता है और कभी-कभी सिर्फ आ, ई, या ए की मात्रा भी क़ाफ़िया और वही हर्फ़-ए-रवी भी हो सकता है और कई बार ऐसे में कोई हर्फ़ बक़ौल आपके क़ाफ़िये से पहले बार-बार नहीं भी आता है। मिसाल के तौर पर चन्द मशहूर ओ मअरूफ़ शुअ़रा हज़रात के कलाम पेश करता हूँ :

            

कहते हो न देंगे हम दिल अगर पड़ा पाया 

दिल कहाँ कि तुम कीजै हमने मुद्द पाया 

इश्क़ से तबीअ़त ने ज़ीस्त का मज़ा पाया

दर्द की दवा पाई दर्द-ए-बे-दवा पाया            

देख तो दिल कि जाँ से उठता है 

ये धुआँ सा कब कहाँ से उठता है 

गोर किस दिलजले की है ये फ़लक 

शोला इक सुब्ह याँ से उठता है 

न छाँव कहीं न को शजर

बहुत है कठिन वफ़ा की डगर

ग़मों के सभी असीर यहाँ

किसी को नहीं किसी की ख़बर 

तोड़ क्या लाऊँ इस बला के लिए 

अब तो माँ भी नहीं दु के लिए       सादर। 

Comment by Samar kabeer on September 9, 2020 at 2:22pm

"हर्फ़-ए-रवी"--क़ाफ़िये के पहले बार बार आने वाला हर्फ़(अक्षर) हर्फ़-ए-रवी कहलाता है ।

आपके क़वाफ़ी में 'ने'क़ाफ़िया है और हर्फ़-ए-रवी नदारद है ।

मिसाल के तौर पर चलना,ढलना,पलना आदि क़वाफ़ी में 'ना' क़ाफ़िया है और हर्फ़-ए-रवी 'ल' ।

Comment by अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी on September 9, 2020 at 1:34pm

"इस सादगी पे कौन न मर जाए ऐ ख़ुदा 

  लड़ते हैं और हाथ में तलवार भी नहीं "

  1. आदरणीय सालिक गणवीर जी आदाब, मैं आप की किसी भी टिप्पणी को अन्यथा नहीं लूँगा क्योंकि मैं जानता हूँ कि हम सब यहांँ सीखने आए हैं ये भी तो आप ही हैं जो अक्सर मेरा उत्साहवर्धन करते रहते हैं और सच्चा रहबर वही होता है जो ग़लत रास्ते से तो रोकता ही है सहीह राह भी दिखाता है और आपने यही करने का प्रयास किया है मगर दुखद यह है कि जो जानकारी आप के पास है वो या तो पूरी नहीं है या आपने उसे ठीक से आत्मसात नहीं किया है इसीलिए ग़ालिब साहिब का वो मशहूर शे'र याद आ गया जो मज़ाक़ के तौर पर मैंने लिख दिया है। आपकी यह बात तो सहीह है कि किसी शब्द के मूल रूप का अंतिम व्यंजन हर्फ़-ए-रवी होता है मगर जैसे आपने बताया है कि चलना में हर्फ़-ए-रवी ल है क्योंकि वह चल शब्द का अंतिम व्यंजन है ग़लत जानकारी है, बन्धु चाल और चलन दोनों ही मूल शब्द हैं और जनाब चलन शब्द में अंतिम व्यंजन न है और यही न हर्फ़-ए-रवी होगा। मेरी ग़ज़ल के मतले के मिसरों के क़वाफ़ी का अंतिम व्यंजन इत्तेफाक़ से न  ही है और यही न हर्फ़-ए-रवी है। याद रहे - (قافیے کا آخری ั حرف روی کہلاتا ہے) क़ाफ़िया का आख़िरी हर्फ़ रवी कहलाता है। 

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