For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

ग़ज़ल नूर की --- ग़म-ए-फ़िराक़ से गर हम दहक रहे होते

.
ग़म-ए-फ़िराक़ से गर हम दहक रहे होते
तो आफ़ताब से बढ़कर चमक रहे होते.
.
बदन की सिगड़ी के शोलों पे पक रहे होते
वो मेरे साथ अगर सुब्ह तक रहे होते.
.
तेरी शुआओं को पीकर बहक रहे होते
मेरी हवस को मेरे होंट बक रहे होते.
.
सुकून मिलता हमें काश जो ये हो जाता
कि हम भी यार के दिल की कसक रहे होते.   
.
तेरी नज़र से उतरना भी एक नेमत है
वगर्न: आँखों में सब की खटक रहे होते.
.
लबों का रस हमें मिलता तो शह’द होते हम
अगर जो आँखों में होते नमक रहे होते.

अगर शजर न भी होते तो हम से ख़ुशकिस्मत
किसी की ज़ुल्फ़ किसी की पलक रहे होते.
.
सराय छोड़ी तो घर तक पहुँच सके हैं हम
बदन में रहते तो अब तक भटक रहे होते.  
.
अगर ये ‘नूर’ मियाँ आदमी न होते तो
वो मंज़िलों से मिलाती सड़क रहे होते.
.
निलेश "नूर"
मौलिक / अप्रकाशित 

Views: 1101

Comment

You need to be a member of Open Books Online to add comments!

Join Open Books Online

Comment by अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी on December 11, 2021 at 9:45pm

//ऐ 'ज़ौक़' गर जो चैन न आया क़ज़ा के बाद//

सर-ए-तस्लीम ख़म।

Comment by Nilesh Shevgaonkar on December 11, 2021 at 9:41pm
आ. अमीरुद्दीन अमीर साहब,
इस मंच पर तो मिसरा वही रहेगा जो कहा है ।
और अगर यानी if होता है और मगर यानी But.
बाकी सब कुशल मंगल
Comment by Samar kabeer on December 11, 2021 at 9:24pm

राहत के वास्ते है मुझे आरज़ू-ए-मर्ग
ऐ 'ज़ौक़' गर जो चैन न आया क़ज़ा के बाद

उस्ताद शैख़ इब्राहिम 'ज़ौक़'

Comment by अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी on December 11, 2021 at 8:31pm

//बिल्कुल,मेरी समर सर से बहस हुई और उसके बाद मैंने मिसरा बदला, लेकिन मैं अब भी इस बात पर काएम हूँ कि मियाद ही आम बोलचाल का प्रचलित शब्द है।वैसे भी मैं अड़ियल नहीं हूं//

मानता हूँ, आप अड़ियल नहीं हैं, मगर शायद आप भूल रहे हैं कि "एक नुस्ख़ा जो घटा देता है हर दुःख की मियाद" मिसरा अभी आप ने बदला नहीं है। 

इंदौर वाले बाबा का शे'र बहुत ख़ूब है। 

'मैं नूर बन के ज़माने में फैल जाऊंगा

तुम आफ़ताब में कीड़े निकलते रहना' 'निकालते' (टंकण त्रुटि

'लबों का रस हमें मिलता तो शह’द होते हम

 अगर जो आँखों में होते नमक रहे होते.'       मुझे ऐसे भी शे'र अच्छा लगा है।  सादर। 

Comment by Nilesh Shevgaonkar on December 11, 2021 at 7:27pm
आ. अमीरुद्दीन अमीर साहब,
मेरा आशय मीर से था जो त्रुटिवश मेरे टाइप हो गया था। मेरे ध्यान में भी आ गया था लेकिन मुझे लगा कि मेरे के लिखने से आप समझ जाएंगे कि मैं मीर के लिखना चाह रहा हूँ।
ख़ैर,, आपने रचना जी का मतला कोट किया है जिस में भाषाई त्रुटि है, जब कि अगर और जो दोनों अलग शब्द हैं,
अगर और जो बिल्कुल अलग कबीले के हैं।
रही बात मियाद लेने की तो बिल्कुल, मेरी समर सर से बहस हुई और उसके बाद मैंने मिसरा बदला।
लेकिन मैं अब भी इस बात पर काएम हूँ कि मियाद ही आम बोलचाल का प्रचलित शब्द है।
वैसे भी मैं अड़ियल नहीं हूं, अपनी 400 ग़ज़लें रिजेक्ट कर के बैठा हूँ।
मैं नूर बन के ज़माने में फैल जाऊंगा
तुम आफ़ताब में कीड़े निकलते रहना
इंदौर वाले बाबा
Comment by अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी on December 11, 2021 at 6:36pm

//साँप सर मार अगर जो जावे मर

न करे ज़ुल्फ़ के तिरी सर बर

आबरू शाह मुबारक... शायर उर्दू में मेरे के समकालीन हैं//

जनाब निलेश नूर साहिब... मेरे भी समकालीन शाइर हैं आप, और ओ बी ओ पर आपकी हस्ब-ए-ज़ैल नसीहतें और इस्लाहात के मद्देनज़र मैंने ऐसा कहने की जसारत की थी, बाक़ी आपको जो उचित लगे - 

"मतला देखने से भाषाई त्रुटी ध्यान में आती है.वो इज़हार-ए-उल्फ़त जताना किसी का ....इज़हार और जताना एक ही वंश के शब्द हैं, लगभग पर्यायवाची अत: इस पर गौर…"

"मेरी पिछली ग़ज़ल में मैंने एक शब्द लिया था मियाद ..जो बहुत ही आम फ़हम व प्रचलित शब्द है लेकिन समर सर ने बताया कि उसे मीआद पढ़ा जाता है..

इस पर उन से व्हाट्स एप्प पर काफी बहस के बाद मैंने उस मिसरे को बदल दिया और मुझे लगता है कि मिसरा पहले से बेहतर हो गया.

इस मंच का और सुधि जनों की तेज़ नज़रों का लाभ जितना लूटा जा सके... "

Comment by Nilesh Shevgaonkar on December 11, 2021 at 12:30pm

आ. अमीरुद्दीन अमीर साहब 

साँप सर मार अगर जो जावे मर
न करे ज़ुल्फ़ के तिरी सर बर
आबरू शाह मुबारक... शायर उर्दू में मेरे के समकालीन हैं 
.
सादर 

Comment by अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी on December 11, 2021 at 12:22pm

लबों का रस हमें मिलता तो शह’द होते हम

अगर जो आँखों में होते नमक रहे होते.

जनाब निलेश जी 'अगर' के साथ 'जो' उचित नहीं लगता, दोनों शब्द लगभग पर्यायवाची हैं,

'मगर जो आँखों में होते नमक रहे होते.'  देखिएगा। सादर। 

Comment by Nilesh Shevgaonkar on December 11, 2021 at 12:20pm

शुक्रिया आ. अमीरुद्दीन अमीर साहब 

Comment by अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी on December 11, 2021 at 12:15pm

जनाब निलेश शेवगाँवकर जी आदाब, अच्छी ग़ज़ल हुई है मुबारकबाद पेश करता हूँ।

"तेरी नज़र से उतरना भी एक नेमत है

वगर्न: आँखों में सब की खटक रहे होते" बेहद उम्द: शेर।  सादर। 

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Blogs

Latest Activity

लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' commented on Saurabh Pandey's blog post कौन क्या कहता नहीं अब कान देते // सौरभ
"आ. भाई सौरभ जी, सादर अभिवादन। बेहतरीन गजल हुई है। हार्दिक बधाई।"
1 hour ago
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' posted a blog post

देवता क्यों दोस्त होंगे फिर भला- लक्ष्मण धामी "मुसाफिर"

२१२२/२१२२/२१२ **** तीर्थ जाना  हो  गया है सैर जब भक्ति का यूँ भाव जाता तैर जब।१। * देवता…See More
17 hours ago

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey posted a blog post

कौन क्या कहता नहीं अब कान देते // सौरभ

२१२२ २१२२ २१२२ जब जिये हम दर्द.. थपकी-तान देते कौन क्या कहता नहीं अब कान देते   आपके निर्देश हैं…See More
Sunday
Profile IconDr. VASUDEV VENKATRAMAN, Sarita baghela and Abhilash Pandey joined Open Books Online
Saturday
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-127 (विषय मुक्त)
"आदाब। रचना पटल पर नियमित उपस्थिति और समीक्षात्मक टिप्पणी सहित अमूल्य मार्गदर्शन प्रदान करने हेतु…"
Friday
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-127 (विषय मुक्त)
"सादर नमस्कार। रचना पटल पर अपना अमूल्य समय देकर अमूल्य सहभागिता और रचना पर समीक्षात्मक टिप्पणी हेतु…"
Friday
Sushil Sarna posted a blog post

दोहा सप्तक. . . सागर प्रेम

दोहा सप्तक. . . सागर प्रेमजाने कितनी वेदना, बिखरी सागर तीर । पीते - पीते हो गया, खारा उसका नीर…See More
Friday
pratibha pande replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-127 (विषय मुक्त)
"आदरणीय उस्मानी जी एक गंभीर विमर्श को रोचक बनाते हुए आपने लघुकथा का अच्छा ताना बाना बुना है।…"
Friday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर commented on मिथिलेश वामनकर's blog post ग़ज़ल: मिथिलेश वामनकर
"आदरणीय सौरभ सर, आपको मेरा प्रयास पसंद आया, जानकार मुग्ध हूँ. आपकी सराहना सदैव लेखन के लिए प्रेरित…"
Friday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर commented on मिथिलेश वामनकर's blog post ग़ज़ल: मिथिलेश वामनकर
"आदरणीय  लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर जी, मेरे प्रयास को मान देने के लिए हार्दिक आभार. बहुत…"
Friday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-127 (विषय मुक्त)
"आदरणीय शेख शहजाद उस्मानी जी, आपने बहुत बढ़िया लघुकथा लिखी है। यह लघुकथा एक कुशल रूपक है, जहाँ…"
Friday
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-127 (विषय मुक्त)
"असमंजस (लघुकथा): हुआ यूॅं कि नयी सदी में 'सत्य' के साथ लिव-इन रिलेशनशिप के कड़वे अनुभव…"
Friday

© 2025   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service