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आज लगते ही तू लगता है चीखने
"आ ज़ाऽऽऽ दीऽऽऽऽऽऽऽऽ...."
घोंचू कहीं का.
मुट्ठियाँ भींच
भावावेष के अतिरेक में
चीखना कोई तुझसे सीखे .. मतिमूढ़ !

 

पता है ?........
तेरी इस चीखमचिल्ली को
आज अपने-अपने हिसाब से सभी
अपना-अपना रंग दिया करते हैं.. .
हरी आज़ादी.. .सफ़ेद आज़ादी.. . केसरिया आज़ादी...
लाल आज़ादीऽऽऽ..
नीली आज़ादी भी.

 

कुछ के पास कैंची है
कइयों के पास तीलियाँ हैं.. .
ये सभी उन्हीं के वंशज हैं
जिन्होंने तब लाशों का खुद
या तो व्यापार किया था, या
इस तिज़ारत की दलाली की थी
तबभी सिर गिनते थे, आज भी सिर गिनते हैं..

 
और तू.. .
इन शातिर ठगों की ज़मात को
आबादी कहता है
आबादी जिससे कोई देश बनता है
निर्बुद्धि .... !

जानता भी है कुछ ? इस घिनौने व्यापार में
तेरी निर्बीज भावनाओं की मुद्रा चलती है.. ?

********

--सौरभ

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Comment

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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on August 16, 2012 at 2:58pm
सौरभ जी कुछ दिनों से काम कि व्यस्तता के कारण ओ बी ओ पर कम आ पा रही हूँ आज आपकी इस रचना पर नजर पड़ी कई बार पढ़ा हर बार इसके शब्द सीसे कि तरह दिल में उतारते चले गए कितनी ख़ूबसूरती से आपने एक आज कि व्यवहारिक कडवी सच्चाई को शब्दों का जामा पहनाकर प्रस्तुत किया सच में आज इंसान इतना स्वार्थी हो चुका है कि आजादी के मायने ही खो गए बस भोली जनता पिस  रही है शातिर मौज कर रहा है बस इतना कहूँगी -----वो आजादी के लिए फिरते थे दर बदर, तुम आज भी पिंजरों से सजाते हो अपना घर, तू समझा ही कहाँ अब तक आजादी कि जुबाँ ऐ आज के मानव  
कर दे इतना एहसान तू छोड़ नहीं जाना अपने क़दमों के निशाँ ,वर्ना तेरा कल इन्ही क़दमों पे चलके आएगा और फिर से यही इतिहास रचा जाएगा 

सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on August 16, 2012 at 9:26am

भाई भ्रमरजी, आज लगते ही तू लगता है चीखने .. का सामान्य अर्थ यह हुआ कि ’आज’ यानि पन्द्रह अगस्त, छब्बीस जनवरी आदि-आदि जैसे ऐतिहासिक दिनों के होते ही (यानि उनके ’लगते ही’) आम, भावुक बहुसंख्य जनता (सामान्य नागरिक/ आम आदमी) भावावेश और भावातिरेक में उत्साह से भर कर ऊर्जस्वी हो जाती है. 

इस कविता में, भ्रमरजी, इसी आम आदमी की भोली भावनाओं और देश के प्रति उसके कृतज्ञ प्रेम को यूज (use) करनेवालों की जमात कैसे-कैसे अर्थ देती अपने स्वार्थ की पूर्ति करती जा रही है का दुख-दर्द यह कह कर उभारने का प्रयास हुआ है कि आम आदमी कब तक मति से मूढ़ हुआ, बुद्धि से अंधा हुआ उपयोगित होता रहेगा.  शातिर जमात के इसी स्वार्थ ने देश को बँटवारे का दंश दिया. इसी घृणित स्वार्थियों के कारण हज़ारों ज़िन्दगियाँ बँटवारे के समय लाशों में तब्दील हुईं. लाखों ज़िन्दग़ियाँ बेघर हुईं. इसी स्वार्थी जमात के कारण देश में आज भाषा, सीमा, वर्ग, जाति भेद उत्पन्न किया गया है. देश में भ्रष्टाचार और लूट का अनकहा रूप दिख रहा है. एक आम आदमी को हमेशा-हमेशा भावनाओं की चाशनी वाले लॉलीपॉप से भरमाया जाता रहा है. आम आदमी को इसी भावुकता से बाहर आ कर तथ्यपरक दृष्टि से स्वार्थियों की कारगुजारियों को समझने की अपील करती है यह कविता.

सादर


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on August 16, 2012 at 9:12am

आदरणीय उमाशंकरजी, आपका कविता की पंक्तियों को मान दिया जाना मुझे मानसिक संबल दे गया.


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on August 16, 2012 at 9:11am

भाई राजेश कुमार जी, हार्दिक आभार.


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on August 16, 2012 at 9:10am

भाई अजीतेन्दुजी, आपको पम्क्तियों की तल्खियाँ अपील कर पायीं, मेरा हार्दिक आभार स्वीकार करें.


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on August 16, 2012 at 9:09am

डॉ. प्राची, आपकी संवेदनशीलता तथा आपका रचनाकर्म संतुष्ट करते रहे हैं. आपका शालीन धीरज ही इस सफल प्रयास की कुंजी है. इसी धीरज से कृपया रचनावाचन करें. विश्वास करें, तथ्य रचनाओं का भाव स्पष्ट होता जायेगा. 

बहरहाल, आपने लेखन कर्म को मान दिया आभारी हूँ.

सादर.


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on August 16, 2012 at 9:05am

भाई लक्ष्मण प्रसाद जी, आपको इस कविता की अंतर्धारा पसंद आयी, सादर धन्यवाद स्वीकारें.

Comment by SURENDRA KUMAR SHUKLA BHRAMAR on August 15, 2012 at 11:58pm

जानता भी है कुछ ? इस घिनौने व्यापार में
तेरी निर्बीज भावनाओं की मुद्रा चलती है.. 

कुछ नहीं चलती है ....व्यापार घिनौने से घिनौना ही होता जा रहा है 

आदरणीय सौरभ जी ..गूढ़ भावों के साथ तीखा प्रहार , कटाक्ष, करती ये रचना बहुत कुछ कह गयी ...सोचने पर विवश करती 

जय  हिंद ......स्वतन्त्रता  दिवस की बधाई 
भ्रमर ५ 
आज लगते ही तू लगता है चीखने ? कृपया समझाएं 

 

Comment by UMASHANKER MISHRA on August 15, 2012 at 9:54pm

आदरणीय सौरभ जी आपके हौसले को सलाम

अत्यंत गहरी बात आपने इस रचना में प्रस्तुत किया

आपके इस कटाक्ष को सादर नमन

एक बहुत ही भयंकर दर्द को सामने लाया

आपकी निगाहों को नमन

Comment by राजेश 'मृदु' on August 15, 2012 at 9:51pm

'जानता भी है कुछ इस घिनौने व्‍यापार में/तेरी निर्बीज भावनाओं की मुद्रा चलती है.....बहुत उम्‍दा लेखन है, सादर

कृपया ध्यान दे...

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