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महाभारत का घटनाचक्र एक बार फिर से दोहराया गया ! लेकिन इस बार जुआ युधिष्ठिर नहीं बल्कि द्रौपदी खेल रही थी! देखते ही देखते वह भी शकुनी के चंगुल में फँसकर अपना सब कुछ हार बैठी ! सब कुछ गंवाने के बाद द्रौपदी जब उठ खडी हुई तो कौरव दल में से किसी ने पूछा:
"क्या हुआ पांचाली, उठ क्यों गईं?"
"अब मेरे पास दाँव पर लगाने के लिए कुछ नहीं बचा " द्रौपदी ने जवाब दिया !
तो उधर से एक और आवाज़ आई:
"अभी तो तुम्हारे पाँचों पति मौजूद है, इनको दाँव पर क्यों नहीं लगा देती ?"
द्रौपदी ने शर्म से सर झुकाए बैठे पांडवों की तरफ हिकारत भरी दृष्टि डालते हुए जवाब दिया:
"मैं इतनी बेग़ैरत नही कि अपने जीवन साथी को ही दाँव पर लगा दूँ!"

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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on January 3, 2015 at 7:46pm
आदरणीय योगराज सर इस बेहतरीन लघुकथा के लिए हार्दिक बधाई।
Comment by पीयूष द्विवेदी भारत on November 29, 2012 at 12:26pm

आदरणीय योगराज जी.. इस लघुकथा की जितनी प्रशंसा की जाए, कम है ! कोटिशः बधाई स्वीकारें !

Comment by Er. Ambarish Srivastava on October 25, 2011 at 1:48pm

आदरणीय योगी जी ! बड़ी ही सहजता से आपने सब कुछ कह दिया! आपके इस रूप को नमन मित्रवर ! दीपावली की हार्दिक बधाई व शुभकामनायें!  जय हो !!!
सादर :

Comment by Bhasker Agrawal on December 25, 2010 at 2:27am
परुष और स्त्री की सोच में क्या फर्क है ...ये खूब दिख रहा है इस में .
मगर अफ़सोस है के बराबर दर्जे के नाम पर आजकल द्रौपदी भी युधिष्ठिर होती जा रही हैं

सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on October 19, 2010 at 1:27am
पांचाली ने क्या ऐसा कहा होता या न कहा होता.. न कहा होता तो क्या होता या ऐसाही कहा होता तो क्या होता.. इन हेतु-हेतुमद भूत के क्रम में कथ्य को डाल लघुकथा के शिल्प को जिस ऊँचाई पर आपने रख दिया है, भाई साहब, इस पर चर्चा पाठक करते रहें. मेरे लिए सुखद आश्वस्ति का कारण है कि लघुकथा का विन्यास जीवंत हो उठा है. प्रस्तुत की गई पंक्तियों के बीच के अलोत दुरूह को आमफहम बना सके यही इस विधा की पराकाष्ठा है. और आपने इस पराकाष्ठा को भरपूर छूआ है.
इस कथ्य पर मेरी हार्दिक शुभकामनाएँ स्वीकार कर कृतार्थ करें.
Comment by Shamshad Elahee Ansari "Shams" on October 18, 2010 at 10:32pm

योगी जी....पांचाली के जवाब से भारत की महिलावादी शक्तियों को नाँक भौं सिकोडने का मौका दे दिया आपने...बेहतर होता वो पाँचो पतियों को हार जाती और १०-१५ साल किसी कोल्हू में बैल की तरह जुता दिये जाते...::))


प्रधान संपादक
Comment by योगराज प्रभाकर on October 18, 2010 at 10:41am
आदरणीय आचार्य सलिल जी,
आपको लघुकथा पसंद आई, यह जानकर दिल को बहुत सुकून मिला ! सादर !
Comment by sanjiv verma 'salil' on October 18, 2010 at 9:59am
waah... waah... bahut khoob... gagar men sagar... badhaee... ise kahte hain lagukatha.

मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on October 17, 2010 at 10:21am
"मैं इतनी बेग़ैरत नही कि अपने जीवन साथी को ही दाँव पर लगा दूँ!"

योगराज सर, शायद लघु कथा का यही मकसद होता है की, पढ्ने के बाद पाठक देर तक उसी की बात सोचते रहे | आपकी लघु कथा गहरे घाव करने मे सक्षम है, आज भी कुछ पांडव है जो द्रोपदी को दाव पर लगाने से नहीं चुकते, उन्हे हर हाल मे बस जुआ जितना होता है, भले ही द्रोपदी को हारना पड़े | सब मिलाकर बहुत ही संदेशपरक कथा और उम्द्दा कथ्यशिल्प | आगे भी आपकी लघु कथाओं का इन्तजार रहेगा |

प्रधान संपादक
Comment by योगराज प्रभाकर on October 17, 2010 at 10:20am
नवीन भाई जी, डॉ ब्रिजेश त्रिपाठी जी, रत्नेश रमण पाठक जी एवं अभिनव भाई - आप सब की हौसला अफजाई का बहुत बहुत शुक्रिया !

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