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जानती हूँ
या कहो
बखूबी समझती हूँ
तुम्हारे चुपचाप रहने का सबब
हमारे बीच समझ का
जो अनकहा पुल है
कभी सच्चा लगता है और
कभी दिवास्वप्न सा
दुविधा की कई बातें हैं
जज्बातों की कई सौगाते भी हैं
जो अकेले बैठ के
अपने मन मंदिर में
कोमल अहसासों से पिरोयें हैं
साझा करने को कभी
पुल के इस पार तो आओ
दो बातें तो कर जाओ
जानती हूँ तुम्हें
या नहीं जानती की
उलझन तो सुलझा जाओ

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Comment

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Comment by राज़ नवादवी on August 3, 2013 at 8:26am

आदरणीया महिमाश्री जी, आपका स्वागत है! 

Comment by MAHIMA SHREE on August 2, 2013 at 10:49pm

आदरणीय राज नवादवी जी ..आपका हार्दिक आभार आपने रचना को समय /आपका  सूक्ष्म विश्लेषण चकित कर गया ... सादर, सहयोग बनाये रखे /

Comment by MAHIMA SHREE on August 2, 2013 at 10:43pm

आदरणीय अभिनव जी .आपका हार्दिक आभार .. आपने अपना कीमती समय रचना को दिया , पसंद किया लिखना सार्थक हुआ , सादर धन्यवाद /

Comment by राज़ नवादवी on August 2, 2013 at 12:13am

साझा करने को कभी 
पुल के इस पार तो आओ
दो बातें तो कर जाओ 
जानती हूँ तुम्हें
या नहीं जानती की 
उलझन तो सुलझा जाओ

- बहुत खूब, प्रेम की पीड़ा और व्यथा का कोई साथी नहीं! मैंने अभी आपकी लेखनी को बहुत पढ़ा नहीं, मगर मुझे लगता है कि आपकी लेखनी में वैयक्तिक आत्मनिष्ठता या आत्मपरकता का आर्तनाद कहीं न कहीं मुखर हो रहा है! जीवन जुड़ा होकर भी कितना कटा कटा है! 

Comment by Abhinav Arun on August 1, 2013 at 6:24pm

जज्बातों की कई सौगाते भी हैं
जो अकेले बैठ के 
अपने मन मंदिर में 
कोमल अहसासों से पिरोयें हैं 
साझा करने को कभी 
पुल के इस पार तो आओ

सुन्दर भावभूमि आदरणीया महिमा जी ..बहुत बधाई इस मधुर काव्य रचना के लिए !

Comment by MAHIMA SHREE on December 24, 2012 at 4:06pm

आदरणीय राजेश जी , आदरणीय विजय सर , आदरणीया प्राची जी ,आदरणीय लुन करन सर , आदरणीय जवाहर सर , आदरणीय सूरज जी , आदरणीय अशोक सर ,तथा आदरणीय प्रदीप सर  रचना को पसंद करने . सराहने और उत्साहवर्धन के लिए सभी गुणीजनो का  ह्रदय की  गहराइयों से आभार व्यक्त करती हूँ / आपका सब का स्नेह मेरे लिए अमुल्य है /  स्नेह बनाएं रखे /सादर   

Comment by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on December 23, 2012 at 8:20pm

साझा करने को कभी 
पुल के इस पार तो आओ
दो बातें तो कर जाओ 
जानती हूँ तुम्हें
या नहीं जानती की 
उलझन तो सुलझा जाओ

एक विनम्र अनुरोध 

बधाई,

स्नेही महिमा जी 

सादर 

Comment by Ashok Kumar Raktale on December 16, 2012 at 10:38pm

बहुत सुन्दर भावों पर उलझाती इस रचना 'उलझन' पर सादर  बधाई स्वीकारें  महिमा श्री जी.  

Comment by डॉ. सूर्या बाली "सूरज" on December 11, 2012 at 4:51pm

महिमा जी नमस्कार !

मानवीय सम्बन्धों के बीच संवाद हीनता बहुत दुखदाई होती  है...अगर दोनों के बीच संवादहीनता की खाई है तो पुल की जरूरत तो पड़ेगी ही...बहुत सुंदर एवं संवेदनशील रचना। बहुत बहुत बधाई स्वीकार करें !

Comment by JAWAHAR LAL SINGH on December 11, 2012 at 5:06am

आत्मीय संबंधों में संवाद की जरूरत ही नहीं होती...एक सुकून भरी खामोशी, अनकहा वायदा,  एकत्व का एहसास....

पर भौतिकता की तरफ दृष्टि होते ही, एक दुविधा, की यह एहसास सत्य है या भ्रम...

और इस उलझन को सुलझाने के लिए शब्दिकता की आवश्यकता..

इन सुन्दर भावों को अभिव्यक्ति में बहुत खूबसूरती से पिरोया है प्रिय महिमा जी,

हार्दिक बधाई..

मंच पर आपकी जुगनू सी चमक के दीप बनने की मंगल कामनाएं. सस्नेह.

महिमा बहन, मैं डॉ प्राची द्वारा किये गए उद्गार में सहमती ब्यक्त करता हूँ!

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