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शब्द ही तो थे …
नयनों के झिलमिल
बिम्बों की भाषा
तरल सीकरों में
ढलती अभिलाषा

टूट तो जाने ही थे
अन्तस् के बंध;
विष  से उफनाये वे-
कटुता के छंद !
शब्द ही तो थे...

फट पडीं, ज्यों बेतरह
कपास की गाठें
चिंदी चिंदी  बिखर गये -
अनछुए अर्थ
विद्रोही पवन का
पाकर स्पर्श 
खुले अवगुंठन

 वह उद्दात्त मन का प्रस्फुटन!

शब्द ही तो थे…
(मौलिक एवं अप्रकाशित)

Views: 984

Comment

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Comment by Vinita Shukla on August 4, 2013 at 7:52pm

बहुत बहुत धन्यवाद शिज्जू जी.

Comment by D P Mathur on August 4, 2013 at 7:14pm

 वह उदात्त मन का प्रस्फुटन!

शब्द ही तो थे…

आदरणीया विनीता जी, अभिव्यक्ति के प्राणरूप, शब्दों पर रचित इस रचना की आपको बधाई !           

Comment by MAHIMA SHREE on August 4, 2013 at 5:43pm

शब्द ही तो थे... आदरणीया शब्दों की ताकत का एहसास कराती .. बहुत ही सुंदर और सार्थक प्रस्तुति बहुत -२ बधाई आपको


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on August 4, 2013 at 5:42pm

विनीता जी बहुत अच्छी अभिव्यक्ति है , इसके लिए आप मेरा अभिवादन एवं बधाई स्वीकार करें

कृपया ध्यान दे...

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